लेखिका: नरेन्द्र कौर छाबड़ा
आदरणीय मम्मी जी,
सादर चरण स्पर्श!
आप सोच रही होंगी, मैं दार्शनिकों की भाषा कैसे बोलने लगी? मैं, जो अपने आपको ज़िंदादिल, आधुनिक, अक्लमंद समझती थी, आज अचानक जीवन को समझने की बातें कैसे करने लगी? मम्मी जी, पिछले कुछ दिनों में जो अनुभव हुए हैं उन्हें फ़ोन पर नहीं बताया जा सकता. कई बार ऐसा होता है, जो बातें हम लिखकर अभिव्यक्त करते हैं, उन्हें बोलकर उतने प्रभावशाली ढंग से व्यक्त नहीं कर सकते. शुरू कहां से करूं? चलिए, सीधे-सीधे आपके पोते से श्लोक से ही शुरुआत करती हूं. तीन वर्ष पूर्व जब आप यहां से वापस अपने छोटे-से क़स्बेनुमा शहर में गई थी, उस वक़्त श्लोक पांच वर्ष का था. लेकिन उसी हरक़तें व बातें देख-सुनकर हम सभी दंग रह जाते थे. गोरे, गदबदे, सुंदर श्लोक की नज़र उतारते हुए आप कहती थीं,‘इसे भगवान ने बड़ा तेज़ दिमाग़ दिया है. अगर इसे सही मार्गदर्शन मिलता रहा तो यह बहुत बड़ा आदमी बनेगा.’ आपकी बाक़ी बातों से तो सहमत थी, लेकिन ‘इसे सही मार्गदर्शन मिलता रहा...’ वाक्य पर मैं खीझ उठती. क्या मैं और समीर अपने बच्चे का ग़लत मार्गदर्शन करेंगे? अप्रत्यक्ष रूप से मैं अपनी खीझ आप पर निकाल देती थी. आप भी बात को समझ गई थीं तभी तो बाद में एक मूक दर्शक की भूमिका निभाने लगी थीं.
आपके जाने के बाद पिछले तीन सालों में श्लोक के व्यवहार, बोलचाल, स्वभाव आदि में जो बदलाव आए हैं, उनसे मैं और समीर चिंतित हो रहे हैं. आप तो जानती हैं, उसे हमने इस महानगर के सबसे ऊंची साखवाले अंतर्राष्ट्रीय स्तर की शिक्षा देनेवाले स्कूल में दाख़िल किया था. यहां काफ़ी तगड़ी फ़ीस लेकर बच्चों को उच्च स्तरीय शिक्षा देने का दावा किया जाता है. लेकिन बच्चों को धीरे-धीरे विदेशी सभ्यता व संस्कार, रहन-सहन की जो ख़ुराक दी जा रही है, वह हमें दिखाई नहीं दे रहीं. बच्चों के अजीबो-ग़रीब व्यवहार, बातें सुनकर हम कह देते हैं-आज के बच्चे बड़े स्मार्ट, बुद्धिमान हैं, लेकिन श्लोक की बातों, व्यवहार से अपने आप को आधुनिक मानने वाली मैं स्वयं उस दिन स्तब्ध रह गई, जब स्कूल से लौटकर उसने कहा,‘ममा, आज हमारी मैम बड़ी सेक्सी लग रही थी. पिंक साड़ी उसे बहुत सूट करती है. आप भी पिंक साड़ी पहना करो, मैम जैसी सेक्सी दिखोगी...’ कुछ क्षणों की स्तब्धता के बाद मैंने बात संभाली,‘तुम जानते हो सेक्सी का मतलब क्या होता है? ऐसी बातें तुम्हारे स्कूल में कौन करता है?’ वह बड़े भोलेपन से बोला,‘कम ऑन ममा, ये कोई बताने की बात है! टीवी में, कम्प्यूटर में, फ़िल्मों में सब जगह तो देखते हैं, जब कोई लड़की, और बहुत सुंदर दिखती है, उसे कहते हैं-बड़ी सेक्सी लग रही है.’
मैंने बातों का रुख़ मोड़ते हुए उसे खेलने के लिए कहा. वह फ़ौरन बोल उठा,‘मुझे तो वीडियो गेम खेलना है गनवाला, ढुशूं-ढुशूं... कितना मज़ा आता है. बाहर खेलने नहीं जाना. सब गंदे बच्चे हैं. लड़ते रहते हैं.’ मैं उसका मुंह ताकती रह गई. वह आत्मकेंद्रित होने लगा है और अभी से ही स्वयं को सबसे बेहतर समझने की भावना उसमें पैदा होने लगी है. पिछले महीने मेरी एक सहेली लंबे समय के अंतराल पर घर आई. हम दोनों गपशप में लीन थे. तभी श्लोक स्कूल से घर लौटा. उसके घर मे अंदर क़दम रखते ही मैंने कहा,‘बेटा, आंटी को नमस्ते करो.’ वह मुंह चिढ़ाकर हंसता हुआ भीतर चला गया. वहीं उसने एक ओर बस्ता फेंका, जूते उतारकर डाइनिंग टेबल के पास धकेल दिए. मोज़े उतारकर उछाले तो वे सोफ़े पर आ गिरे. मैंने उसे क्रोध से देखते हुए कहा,‘श्लोक, ये क्या कर रहे हो? सब सामान, अपने कमरे में ले जाकर रखो.’ वह फिर से मुंह चिढ़ाकर हंसता हुआ अंदर भाग गया सच, मम्मी जी! उस दिन मुझे इतनी शर्मिंदगी महसूस हुई कि बता नहीं सकती. मेरी सहेली क्या सोच रही होगी? मुझ जैसी शिक्षित, आधुनिक का इंटरनैशनल कोर्सवाले कॉन्वेंट स्कूल में पढ़नेवाला बेटा इतना बद्तमीज़, ढीठ व बिगड़ैल है? क्या मैं उसे सामान्य शिष्टाचार भी नहीं सिखा सकती? आठ साल का बच्चा कम्प्यूटर चला लेता है, टीवी रिमोट हाथ में रखकर चैनल बदल-बदलकर अपने पसंदीदा प्रोग्राम देखता है,
लेकिन सामान्य शिष्टाचार, बड़ों का आदर, अभिवादन करने से कतराता है. आख़िर यह कौन-सी संस्कृति अपना रही है नई पीढ़ी? और क्यों? अचानक मुझे उस दिन की घटना याद आ गई. जब आपने मेरे सामने ही श्लोक से कहा था,‘बेटा, सबेरे उठकर घर के बड़ों से आर्शीवाद लेना चाहिए. रोज पापा, मम्मी, दादी के पैर छूकर प्रणाम किया करो...’ मैं बीच में ही बोल उठी थी,‘मम्मी जी, आप भी अभी तक पुरानी रुढ़ियों में जकड़ी हुई हैं. आज ज़माना कहां पहुंच गया है. अब तो सभी हाय, हैलो कहकर आगे बढ़ जाते हैं. पैर छूना, झुकना, हाथ जोड़ नमस्कार करना पुरानी बातें हो गई हैं. आपने टोकते हुए कहा था,‘‘हाय’ तो हमारे यहां दुर्भाग्य के लिए प्रयोग होने वाला शब्द हैं. अंग्रेज़ी स्कूलों में पढ़ाने का यह मतलब तो नहीं कि अपनी संस्कृति भुलाकर उनकी अपनाना शुरू कर दें!’ लेकिन मुझे आपकी बातों में कोई दिलचस्पी नहीं थी. काश, उस दिन आपकी बातों को अहमियत दी होती.
मुझे वह वाक़या भी याद आ रहा है, जब आपने श्लोक से कहा था,‘आओ बच्चे, तुम्हें बड़ी अच्छी कहानी सुनाती हूं. श्लोक बैठ गया. आपने कहानी शुरू ही थी,‘एक राजा था...’ तभी मैं बीच में बोल उठी थी,‘आप भी मम्मी जी, कमाल करती हैं. लोग चांद पर पहुंच रहे हैं और आप अभी तक राजा-रानी और परियों की काल्पनिक, मनगढ़ंत कहानियां लेकर बैठी हैं. आख़िर इससे बच्चों का क्या भला होगा?’ आपने कहा था,‘बहू, इन काल्पनिक कहानियों में मनोरंजन के साथ-साथ साहस, बहादुरी, बुद्धिचातुर्य का पुट भी होता है. बच्चों को अच्छी शिक्षाएं, सीख भी मिलती हैं.’ पर मैं कहां आपके तर्क माननेवाली थी? हम दोनों को बहस करते देख श्लोक भाग खड़ा हुआ था. बाद में आपने दो-चार बार फिर उसे कहानी सुनाने की कोशिश की थी, लेकिन वह स्पष्ट इंकार कर देता था,‘मुझे नहीं सुननी झूठी कहानी. मैं कार्टून फ़िल्म देखूंगा’ कभी टीवी पर तो कभी कम्प्यूटर पर वह कार्टून फ़िल्में लगाकर लगातार बैठा रहता और मैं ख़ुश होती रहती कि बेटा अंग्रेज़ी फ़िल्में देखकर स्मार्ट हो रहा है. पर मेरी सोच कितनी ग़लत थी.
उस दिन कम्प्यूटर पर वह कोई गेम खेल रहा था. मैं अपनी सहेली से फ़ोन पर गपशप कर रही थी. फ़ोन रखने के बाद किसी काम से कम्प्यूटर रूम में गई. श्लोक बड़ी मग्नता से देख रहा था. पीछे खड़ी मैं कम्प्यूटर स्क्रीन देखकर हक्की-बक्की रह गई. इंटरनेट सर्फ़ करते हुए कोई अश्लील वेबसाइट उससे खुल गई थी और एक अर्धनग्न युवती की कोमोत्तेजक तस्वीर वह बड़े ग़ौर से देख रहा था. मुझे कुछ सूझा नहीं और मैं एकदम चीख उठी. ‘श्लोक, यह क्या कर रहे हो...?’ मुझे सामने देख पल-भर के लिए वह डर गया, फिर कुछ क्षणों में ही उसके चेहरे के भाव बदल गए. कुटिल मुस्कान के साथ बाला,‘पापा भी तो देखते हैं. मैंने एक दिन देखा था. आप उन्हें तो नहीं डांटतीं? मुझे क्यों डांट रही हैं?’ मेरे पैरों तले ज़मीन खिसक गई. सिर घूमने लगा. श्लोक के चेहरे पर जो बालसुलभ चंचल, मोहक मुस्कान होनी चाहिए थी, वहां तो मुझे आफ़त की घंटी सुनाई देने लगी थी. समीर से जब इस बात का ज़िक्र किया तो उन्होंने मुझे ही दोषी ठहराया,‘सारा दिन घर में रहती हो. तुमसे एक बच्चे की परवरिश ढंग से नहीं होती?’ उस वक़्त मुझे आपके कहे शब्द बार-बार प्रतिध्वनित होते महसूस हुए,‘बहू, बच्चे को जन्म देना आसान है, लेकिन उसकी सही परवरिश, संस्कार, नैतिक मूल्यों से शिक्षित करके अच्छा इंसान बनाना बड़ा मुश्क़िल है.’ सच मम्मी जी, मुझे तो समझ नहीं आ रहा, अपने इकलौते बच्चे को कैसे हैंडल करूं? पता नहीं आपके ज़माने की महिलाएं कैसे चार-पांच बच्चों की सही परवरिश कर लेती थीं! एक दिन मैं टीवी पर अपना पसंदीदा सीरियल देख रही थी. तभी श्लोक आकर किसी चीज़ की ज़िद करने लगा. मैंने उसे चुप कराने की कोशिश की लेकिन वह चीखने-चिल्लाने लगा. सीरियल देखने में व्यवधान पड़ता देख मुझे क्रोध आ गया. फिर भी उसे मनाने की गरज से मैंने कहा,‘कुछ देर खेल लो, सीरियल ख़त्म होते ही तुम्हें वह चीज़ दे दूंगी.’ वह बड़े आवेश से बोला,‘हमेशा कहती हो, जाओ खेलो.
किसके साथ खेलूं? न मेरा कोई भाई है, न बहन. मेरे सारे फ्रेंड्स तो अपने भाई-बहन के साथ खेलते हैं...’ मुझे ऐसा लगा जैसे श्लोक ने सरेआम मेरे मुंह पर तमाचा जड़ दिया हो. एक बच्चे तक ही परिवार को सीमित रखने का मेरा निर्णय कितना ग़लत था, अब मुझे महसूस होने लगा था. समीर ने तो कई बार दूसरे बच्चे की ख़्वाहिश ज़ाहिर की थी, पर मैं इस ज़िद पर अड़ी थी कि एक बच्चा ही काफ़ी है. इस बारे में आपने भी मुझे समझाया था,‘बहू, इकलौता बच्चा ज़िद्दी, अड़ियल, बिगड़ैल हो सकता है. चूंकि अकेला होने के कारण उसकी हर मांग पूरी हो जाती है. उसे सभी सुख-सुविधाएं मुहैया कराई जाती है इसलिए उसमें केवल लेने की प्रवृत्ति ही बनी रहती है. मिल-बांटने की, देने की प्रवृत्ति न बन पाने के कारण वह स्वार्थी आचरण का बन जाता है. कहीं-कहीं तो ऐसे बच्चे एकाकीपन का शिकार बन जाते हैं, जिसके चलते मानसिक तनाव, चिड़चिड़ापन, कुंठा तक पनपने लगते हैं. फिर बच्चों को रिश्तों के अर्थ, आत्मीयता, लगाव आदि के बारे में कहां जानकारी होती है. पहले के परिवारों में दो-तीन होते थे. घर वाक़ई घर लगता था. हल्ला-गुल्ला लड़ना-झगड़ना, मिल-बांटकर खाना, एक-दूसरे के प्रति स्नेह, प्रेम, सहयोग की भावना से घर में रौनक लगी रहती थी. अब एक बच्चे वाले एकल परिवार में सन्नाटा पसरा होता है...’
मैंने फ़ौरन बात काट दी थी,‘मुझे नहीं चाहिए बच्चों का शोर-शराबा. मैं ऐसे ही ख़ुश हूं. हमारे परिवार में एक श्लोक ही काफ़ी है.’ आप चुप लगा गई थीं. अभी पिछले दिनों ही मैंने देखा, अपने दोस्त से फोन पर बातें करते हुए श्लोक बीच-बीच में गंदी भाषा का प्रयोग कर रहा था. अंग्रेज़ी में गालियां दे रहा था. मेरे मना करने पर बोला,‘कम ऑन ममा, आजकल सब ऐसे ही बातें करते हैं. हमारे स्कूल में तो सभी ऐसे ही बोलते हैं.’ मुझे लगता है, आज के बच्चों में बचपन तो रहा ही नहीं है. बालसुलभ चंचलता, शरारतों के स्थान पर वे सीधे वयस्कों की भाषा बोलने लगे हैं. जिन बातों को जानने-समझने की उनकी उम्र नहीं है, उन्हें भी वे प्रसार-माध्यमों की कृपा से जानने लगे हैं. शायद इसलिए बाल-अपराधियों की संख्या बढ़ रही है. मम्मी जी, मुझे बहुत तनाव, चिंता लगी रहती है, कहीं हमारा श्लोक बहककर ग़लत रास्ते पर न चल पड़े. उसके व्यवहार, हरकतों से काफ़ी परेशान हूं समझ नहीं आता, उसका कैसे मार्गदर्शन करूं.
डैडी जी के गुज़रने के बाद समीर के ज़ोर देने पर आप हमारे पास रहने आई थीं. उस वक़्त आपको सुरक्षा, भावनात्मक संबल, आदरभाव, अपनत्व सहयोग की बहुत ज़रूरत थी, क्योंकि आप एकदम अकेली हो कई थीं. लेकिन मैंने इस बात को नहीं समझा. आपके साथ किए गए व्यवहार पर अब मैं आत्मग्लानि से शर्मिंदा हूं. समीर और मैं बहुत सोच-विचार के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि अब आप हमेशा के लिए हमारे साथ रहें. अपने दुर्व्यवहार की क्षमा मांगते हुए हम आपसे प्रार्थना तो नहीं कर रहे, लेकिन आपके बच्चे होने के नाते अधिकार से आग्रह करते हैं कि आप शीघ्र ही अपनी तैयारी करके रखें. आपको अब हमारे साथ ही रहना है तथा श्लोक की परवरिश करने में हमारा मार्गदर्शन करना है. हम चाहते हैं, अगर ईश्वर ने उसे तीक्ष्ण बुद्धि दी है तो उसके सही उपयोग से वह एक नेक, सफल, अच्छा व बड़ा आदमी बने. इसके लिए आपको ही उसे संभालना है. आप उसे जीवन-मूल्यों, संस्कार, नीति-चरित्र की कहानियां सुनाएंगी. उठने-बैठने, बोलने, खाने का तरीक़ा सिखाएंगी. शिष्टाचार, अनुशासन, लोक-व्यवहार की शिक्षा देंगी तो मैं तनिक भी हस्तक्षेप नहीं करूंगी. आपकी उपेक्षा व तिरस्कार करके मैं पहले ही पश्चाताप से ग्रसित हूं. आशा है, क्षमा कर देंगी. और हां, मम्मी जी, आजकल मैं दूसरे बच्चे के बारे में गंभीरता से सोचने लगी हूं. सचमुच श्लोक को अपने प्यार-स्नेह, खिलौनों, सामान, शरारतों आदि का हिस्सेदारी के लिए एक साथी की ज़रूरत है. यह उसका अधिकार भी है और इससे वंचित रखकर उसके साथ हम अन्याय ही तो कर रहे हैं. रिश्तों, संबंधों की गर्माहट का एहसास रिश्ते बनने पर ही तो होगा न! आप पूरी तैयारी करके रखिए, अगले सप्ताह हम तीनों आपको लेने आ रहे हैं. आपकी बहू मीता