मेरे निकलते ही उसने फुर्ती से कमरे पर ताला ठोंका और चाभी अपनी बीवी की तरफ उछाल दी...
पूस की एक ठिठुरती रात तो भुलाए नहीं भूलती, जब लखनऊ में अचानक मेरे एक परम मित्र और मेजबान ने मुझे आधी रात फौरन से पेश्तर अपना घर छोड़ देने का निर्मम सुझाव दे डाला था। कुछ देर पहले हम लोग अच्छे दोस्तों की तरह मस्ती में दारू पी रहे थे। मेरे मित्र ने नया-नया स्टीरियो खरीदा था और हम लोग बेगम अख्तर को सुन रहे थे : 'अरे मयगुसारो सबेरे-सबेरे, खराबात के गिर्द घेरे पै घेरे' कि अचानक टेलीफोन की घंटी टनटनाई। फोन सुनते ही मेरे मित्र का नशा हिरन हो गया, वह बहुत असमंजस में कभी मेरी तरफ देखता और कभी अपनी बीवी की तरफ। उसके विभाग के प्रमुख सचिव का फोन था कि उसे अभी आधे घंटे के भीतर लखनऊ से दिल्ली रवाना होना है। उसने अपनी बीवी से सूटकेस तैयार करने के लिए कहा और कपड़े बदलने लगा। सूट-टाई से लैस हो कर उसने अचानक अत्यंत औपचारिक रूप से एक प्रश्न दाग दिया, 'मैं तो दिल्ली जा रहा हूँ इसी वक्त, तुम कहाँ जाओगे?'
'मैं कहाँ जाऊगा, यहीं रहूँगा।'
'मेरी गैरहाजिरी में यह संभव न होगा।'
'क्या बकवास कर रहे हो?'
'बहस के लिए मेरे पास समय नहीं है, किसी भी सूरत में मैं तुम्हें अकेला नहीं छोड़ सकता। इस वक्त तुम नशे में हो और मेरी बीवी खूबसूरत है, जवान है, मैं यह 'रिस्क' नहीं उठा सकता।'
वह मेरा बचपन का दोस्त था, हम लोग साथ-साथ बड़े हुए थे, क्रिकेट, हॉकी, बालीवाल और कबड्डी खेलते हुए। वह आई.ए.एस. में निकल गया और मैं मसिजीवी हो कर रह गया। हम लोग मिलते तो प्रायः नास्टेलजिक हो जाते, घंटों बचपन का उत्खनन करते, तितलियों के पीछे भागते, बर्र की टाँग पर धागा बाँध कर पतंग की तरह उड़ाते।
अभी तक मैं यही सोच रहा था कि वह मजाक कर रहा है, जब ड्राइवर ने आ कर खबर दी कि गाड़ी लग गई है तो मेरा माथा ठनका। मेरा मित्र घड़ी देखते हुए बोला, 'अब बहस का समय नहीं है। मुझे जो कहना था, कह चुका। उम्मीद है तुम मेरी मजबूरी को समझोगे और बुरा नहीं मानोगे।'
'साले तुम मेरा नहीं अपनी बीवी का अपमान कर रहे हो।' मैंने कहा और उसे विदा करने के इरादे से दालान तक चला आया। मेरे निकलते ही उसने बड़ी फुर्ती से कमरे पर ताला ठोंक दिया और चाभी अपनी बीवी की तरफ उछाल दी। उसकी पत्नी ने चाभी कैच करने की कोशिश नहीं की और वह छन्न से फर्श पर जा गिरी। वह हो-हो कर हँसने लगा।
मैं खून का घूँट पी कर चुपचाप सीढ़ियाँ उतर गया। मेरा सारा सामान भी अंदर बंद हो गया था। बाहर सड़क पर सन्नाटा था, कोहरा छाया हुआ था, कुत्ते रो रहे थे। उसकी गाड़ी दनदनाती हुई कोहरे मे विलुप्त हो गई।
लखनऊ के भूगोल का भी मुझे ज्यादा ज्ञान नहीं था। मेरे जेहन में मजाज़ की पंक्तियाँ कौंध रही थी -
ग़ैर की बस्ती है , कब तक दर-ब-दर मारा फिरूँ ,
ऐ ग़मे दिल क्या करूँ ऐ वहशते दिल क्या करूँ ?
अंधाधुंध शराबनोशी में मजाज भी लखनऊ की इन्हीं सड़कों पर बेतहाशा भटका था। वह भी पूस की ही एक रात थी, जब मजाज ने बुरी तरह शराब पी थी, दोस्त लोग उसे शराबखाने में खुली छत पर लावारिस छोड़ कर अपने-अपने घर लौट गए थे और मजाज़ रात भर खुली छत पर पड़ा रहा और सुबह तक उसका शरीर अकड़ गया था।
दिन में ही फोन पर कवि नरेश सक्सेना ने बताया था कि उसका तबादला लखनऊ हो गया है और नजदीक ही वजीर हसन रोड पर उसने घर लिया है। मुझे उसने सुबह नाश्ते पर आमंत्रित किया था। मैं आधी रात को ही नाश्ते की तलाश में निकल पड़ा, वजीर हसन रोड ज्यादा दूर नहीं था।
भटकते-भटकते मैंने उसका घर खोज ही निकाला। मैंने दरवाजा खटखटाया तो उसने ठिठुरते हुए दरवाजा खोला, 'अरे तुम इस समय, इतनी ठंड में?'
'मेरे नाश्ते का वक्त हो गया है।' मैंने कहा। भीतर पहुँच कर मुझे समझते देर न लगी कि जौनपुर से अभी उसका पूरा सामान नहीं आया था। वे लोग किसी तरहगद्दे और चादरें जोड़ कर बिस्तर में दुबके हुए थे। उन्हें देख कर लग रहा था कि बहुत ठंड है, मेरे भीतर शराब की गर्मी थी। मैं भी नरेश के साथ उसी बरायनाम रजाई में जा घुसा।
(रवींद्र कालिया की किताब गालिब छुटी शराब का अंश)