शायद नन्हे असलम को भी इतनी देर में विदाई की घंटी सुनाई पड़ने लगी, Hindi Kahani Ummedien Bhag 2 "Hindi Story Ummeed" Read Hindi |हिंदी कहानी उम्मीदें भाग-2
पिछला भाग पढ़ने के लिए- उम्मीदें: भाग-1
इतने में तरन्नुम ठंडा पानी ले आई. एक घूंट गले से उतार कर अम्मी फिर बोलीं, ‘‘कलेजे पर पत्थर रख कर तेरा रिश्ता तय किया था मैं ने. लेदे कर एक ही तो सुख रह गया है जिंदगी में कि बेटी ससुराल में खुशहाल है, वह तो मत छीन. अरे, ओ लीमो के अब्बू, मेरी लीमो को ले जा कर गाड़ी में बैठा दीजिए. आ बेटा, तुझे सीने से लगा कर कलेजा ठंडा कर लूं,’’ इतना कह कर अम्मी अब्बू की गोद से नन्हे असलम को ले कर पागलों की तरह चूमने लगीं.
शायद नन्हे असलम को भी इतनी देर में विदाई की घंटी सुनाई पड़ने लगी. वह रोंआसा हो कर इन चुंबनों का अर्थ समझने की कोशिश करने लगा.
इतने में तीनों बहनें एकदूसरे से विदा लेने लगीं.
तबस्सुम धीरे से तसलीमा के कान में बोली, ‘‘दीदी, आप बिलकुल फिक्र न करो, आज से घर की सारी जिम्मेदारी मेरी है, मैं अम्मी और तरन्नुम को यहां संभाल लेती हूं, आप निश्ंिचत हो कर जाओ.’’
तसलीमा ने डबडबाई आंखों से तबस्सुम को देखा. उसे यकीन नहीं हो रहा था कि उस की चुलबुली बहन आज कितनी बड़ी हो गई है. सच, जिम्मेदारी उठाने के लिए उम्र नहीं, शायद परिस्थितियां ही जिम्मेदार होती हैं.
असलम को गोद में ले कर तसलीमा चुपचाप अब्बू और कुली के पीछे चल दी. वह जानती थी कि अब अगर आगे उस ने कुछ कहने की कोशिश की या पीछे मुड़ कर देखा तो बस, सारी कयामत यहीं बरपा हो जाएगी.
जब तक गाड़ी प्लेटफार्म पर खड़ी रही, अब्बू ने अपनेआप को सामान सजाने में व्यस्त रखा और तसलीमा ने अपने आंसुओं को रोकने में. पर गाड़ी की सीटी बजते ही उसे लगा कि अब बस, कयामत ही आ जाएगी.
जैसेजैसे अब्बू पीछे छूटने लगे, वह प्लेटफार्म भी पीछे छूटने लगा जहां की एक बेंच पर उस की अम्मी बहनों को साथ लिए बैठी हैं, वह शहर पीछे छूटने लगा जहां वह नाजों पली, वह वतन पीछे छूटने लगा जिसे तसलीमा परदेस जा कर और ज्यादा चाहने लगी थी.
तसलीमा को लगा कि गाड़ी की बढ़ती रफ्तार के साथ उस के आंसुओं की रफ्तार भी बढ़ रही है. अपने आंसुओं की बहती धारा में उसे ध्यान ही नहीं रहा कि कब नन्हा असलम सुबकने लगा. भला अपनी मां को इस तरह रोता देख कौन बच्चा चुप रहेगा?
‘‘बच्चे को इधर दे दो, बहन. जरा घुमा लाऊं तो इस का मन बहल जाएगा. आ मुन्ना, आ जा,’’ कह कर किसी ने असलम को उस की गोद से उठा लिया. वह थी कि बस, दुपट्टे में चेहरा छिपा कर रोए जा रही थी. उस ने यह भी नहीं देखा कि उस के बच्चे को कौन ले जा रहा है.
आखिर जब शरीर में न तो रोने की शक्ति बची और न आंखों में कोई आंसू बचा तो तसलीमा ने धीरे से चेहरा उठा कर चारों तरफ देखा. उस डब्बे में हर उम्र की महिलाएं मौजूद थीं. पर किसी की गोद में उस का असलम नहीं था और न ही आसपास कहीं दिखाई दे रहा था. मां का दिल तड़प उठा. अब वह क्या करे? कहां ढूंढ़े अपने जिगर के टुकड़े को?
इतने में एक नीले बुरके वाली युवती अपनी गोद में असलम को लिए उसी के पास आ कर बैठ गई. तसलीमा ने लपक कर अपने बच्चे को गोद में ले लिया और बोली, ‘‘आप को इस तरह मेरा बच्चा नहीं ले कर जाना चाहिए था. घबराहट के मारे मेरी तो जान ही निकल गई थी.’’
‘‘बहन, क्या करती, बच्चा इतनी बुरी तरह से रो रहा था और आप को कोई होश ही नहीं था. ऐसे में मुझे जो ठीक लगा मैं ने किया. थोड़ा घुमाते ही बच्चा सो गया. गुस्ताखी माफ करें,’’ युवती ने मीठी आवाज में कहा.
शायद यह उस के मधुर व्यवहार का ही अंजाम था कि तसलीमा को सहसा ही अपने गलत व्यवहार का एहसास हुआ. वाकई असलम नींद में भी हिचकियां ले रहा था
‘‘बहन, माफी तो मुझे मांगनी चाहिए कि तुम ने मेरा उपकार किया और मैं एहसान मानने के बदले नाराजगी जता रही हूं,’’ थोड़ा रुक कर तसलीमा फिर बोली, ‘‘दरअसल, इन हालात में मायका छोड़ कर मुझे जाना पड़ेगा, यह सोचा नहीं था.’’
‘‘ससुराल तो जाना ही पड़ता है बहन, यही तो औरत की जिंदगी है कि जाओ तो मुश्किल, न जाओ तो मुश्किल,’’ नीले बुरके वाली युवती बोली, साथ ही उस का मुसकराता चेहरा कुछ फीका पड़ गया.
‘‘हां, यह तो है,’’ तसलीमा बोली, ‘‘पहले जब भी ससुराल जाती थी तो मायके वालों से दोबारा मिलने की उम्मीद तो रहती थी, मगर इस बार…’’ इतना कहतेकहते तसलीमा को लगा कि उस का गला फिर से रुंध रहा है.
फिर उस ने बात बदलने के लिए पूछा, ‘‘आप अकेली हैं?’’
‘‘हां, अकेली ही समझो. जिस का दामन पकड़ कर यहां परदेस चली आई थी, वह तो अपना हुआ नहीं, तब किस के सहारे यहां रहती. इसलिए अब वापस पाकिस्तान लौट रही हूं. वहां रावलपिंडी के पास गांव है, वैसे मेरा नाम नजमा है और तुम्हारा?’’
‘‘तसलीमा.’’
तसलीमा सोचने लगी कि इनसान भी क्या चीज है. हालात के हाथों बिलकुल खिलौना. किसी और जगह मुलाकात होती तो हम दो अजनबी महिलाओं की तरह दुआसलाम कर के अलग हो जाते पर यहां…यहां दोनों ही बेताब हैं एकदूसरे से अपनेअपने दर्द को कहने और सुनने के लिए, जबकि दोनों ही जानती हैं कि कोई किसी का गम कम नहीं कर सकता पर कहनेसुनने से शायद तकलीफ थोड़ा कम हो और फिर समय भी तो गुजारना है. इसी अंदाज से तसलीमा बोली, ‘‘क्या आप के शौहर ने आप को छोड़ दिया है?’’
‘‘नहीं, मैं ने ही उसे छोड़ दिया,’’ नजमा ने एक गहरी सांस खींचते हुए कहा, ‘‘सच्ची मुसलमान हूं, कैसे रहती उस काफिर के साथ जो अपने लालची इरादों को मजहब की चादर में ढकने की नापाक कोशिश कर रहा था.’’
तसलीमा गौर से नजमा को देख रही थी, शायद उस के दर्द को समझने की कोशिश कर रही थी.
इतने में नजमा फिर बोली, ‘‘जब पाकिस्तान से हम चले थे तो उस ने मुझ से कहा था कि हिंदुस्तान में उसे बहुत अच्छा काम मिला है और वहां हम अपनी मुहब्बत की दुनिया बसाएंगे, पर यहां आ कर पता चला कि वह किसी नापाक इरादे से भारत भेजा गया है जिस के बदले उसे इतने पैसे दिए जाएंगे कि ऐशोआराम की जिंदगी उस के कदमों पर होगी.
‘‘मुझ से मुहब्बत सिर्फ नाटक था ताकि यहां किसी को उस के नापाक इरादों पर शक न हो. मजहब और मुहब्बत के नाम पर इतना बड़ा धोखा. फिर भी मैं ने उसे दलदल से बाहर निकालने की कोशिश की थी. कभी मुहब्बत का वास्ता दे कर तो कभी आने वाली औलाद का वास्ता दे कर, पर आज तक कोई दलदल से बाहर निकला है जो वह निकलता. हार कर खुद ही निकल आई मैं उस की जिंदगी से. आखिर मुझे अपनी औलाद को एक नेकदिल इनसान जो बनाना है.’’
तसलीमा ने देखा कि अपने दर्द का बयान करते हुए भी नजमा के होंठों पर आत्मविश्वास की मुसकान है, आंखों में उम्मीदें हैं. उस ने दर्द का यह रूप पहले कभी नहीं देखा था.
क्या नजमा का दर्द उस के दर्द से कम है? नहीं तो? फिर भी वह मुसकरा रही है, अपना ही नहीं दूसरों का भी गम बांट रही है, अंधेरी राहों में उम्मीदों का चिराग जला रही है. वह ऐसा क्यों नहीं कर सकती? फिर उस के पास तो अनवर जैसा शौहर भी है जो उस के एक इशारे पर सारी दुनिया उस के कदमों पर रख दे. क्या सोचेंगे उस के ससुराल वाले जब उस की सूजी आंखों को देखेंगे. कितना दुखी होगा अनवर उसे दुखी देख कर.
नहीं, अब वह नहीं रोएगी. उस ने खिड़की से बाहर देखा. जिन खेत-खलिहानों को पीछे छूटते देख कर उस की आंखें बारबार भीग रही थीं, अब उन्हीं को वह मुग्ध आंखों से निहार रही थी. कौन कहता है कि इन रास्तों से दोबारा नहीं लौटना है? कौन कहता है सरहद पार जाने वाली ये आखिरी गाड़ी है? वह लौटेगी, जरूर लौटेगी, इन्हीं रास्तों से लौटेगी, इसी गाड़ी में लौटेगी, जब दुनिया नहीं रुकती है तो उस पर चलने वाले कैसे रुक सकते हैं?<
तसलीमा ने असलम को सीने से लगा लिया और नजमा की तरफ देख कर प्यार से मुसकरा दी. अब दोनों की ही आंखें चमक रही थीं, दर्द के आंसू से नहीं बल्कि उम्मीद की किरण से.
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इतने में तरन्नुम ठंडा पानी ले आई. एक घूंट गले से उतार कर अम्मी फिर बोलीं, ‘‘कलेजे पर पत्थर रख कर तेरा रिश्ता तय किया था मैं ने. लेदे कर एक ही तो सुख रह गया है जिंदगी में कि बेटी ससुराल में खुशहाल है, वह तो मत छीन. अरे, ओ लीमो के अब्बू, मेरी लीमो को ले जा कर गाड़ी में बैठा दीजिए. आ बेटा, तुझे सीने से लगा कर कलेजा ठंडा कर लूं,’’ इतना कह कर अम्मी अब्बू की गोद से नन्हे असलम को ले कर पागलों की तरह चूमने लगीं.
शायद नन्हे असलम को भी इतनी देर में विदाई की घंटी सुनाई पड़ने लगी. वह रोंआसा हो कर इन चुंबनों का अर्थ समझने की कोशिश करने लगा.
इतने में तीनों बहनें एकदूसरे से विदा लेने लगीं.
तबस्सुम धीरे से तसलीमा के कान में बोली, ‘‘दीदी, आप बिलकुल फिक्र न करो, आज से घर की सारी जिम्मेदारी मेरी है, मैं अम्मी और तरन्नुम को यहां संभाल लेती हूं, आप निश्ंिचत हो कर जाओ.’’
तसलीमा ने डबडबाई आंखों से तबस्सुम को देखा. उसे यकीन नहीं हो रहा था कि उस की चुलबुली बहन आज कितनी बड़ी हो गई है. सच, जिम्मेदारी उठाने के लिए उम्र नहीं, शायद परिस्थितियां ही जिम्मेदार होती हैं.
असलम को गोद में ले कर तसलीमा चुपचाप अब्बू और कुली के पीछे चल दी. वह जानती थी कि अब अगर आगे उस ने कुछ कहने की कोशिश की या पीछे मुड़ कर देखा तो बस, सारी कयामत यहीं बरपा हो जाएगी.
जब तक गाड़ी प्लेटफार्म पर खड़ी रही, अब्बू ने अपनेआप को सामान सजाने में व्यस्त रखा और तसलीमा ने अपने आंसुओं को रोकने में. पर गाड़ी की सीटी बजते ही उसे लगा कि अब बस, कयामत ही आ जाएगी.
जैसेजैसे अब्बू पीछे छूटने लगे, वह प्लेटफार्म भी पीछे छूटने लगा जहां की एक बेंच पर उस की अम्मी बहनों को साथ लिए बैठी हैं, वह शहर पीछे छूटने लगा जहां वह नाजों पली, वह वतन पीछे छूटने लगा जिसे तसलीमा परदेस जा कर और ज्यादा चाहने लगी थी.
तसलीमा को लगा कि गाड़ी की बढ़ती रफ्तार के साथ उस के आंसुओं की रफ्तार भी बढ़ रही है. अपने आंसुओं की बहती धारा में उसे ध्यान ही नहीं रहा कि कब नन्हा असलम सुबकने लगा. भला अपनी मां को इस तरह रोता देख कौन बच्चा चुप रहेगा?
‘‘बच्चे को इधर दे दो, बहन. जरा घुमा लाऊं तो इस का मन बहल जाएगा. आ मुन्ना, आ जा,’’ कह कर किसी ने असलम को उस की गोद से उठा लिया. वह थी कि बस, दुपट्टे में चेहरा छिपा कर रोए जा रही थी. उस ने यह भी नहीं देखा कि उस के बच्चे को कौन ले जा रहा है.
आखिर जब शरीर में न तो रोने की शक्ति बची और न आंखों में कोई आंसू बचा तो तसलीमा ने धीरे से चेहरा उठा कर चारों तरफ देखा. उस डब्बे में हर उम्र की महिलाएं मौजूद थीं. पर किसी की गोद में उस का असलम नहीं था और न ही आसपास कहीं दिखाई दे रहा था. मां का दिल तड़प उठा. अब वह क्या करे? कहां ढूंढ़े अपने जिगर के टुकड़े को?
इतने में एक नीले बुरके वाली युवती अपनी गोद में असलम को लिए उसी के पास आ कर बैठ गई. तसलीमा ने लपक कर अपने बच्चे को गोद में ले लिया और बोली, ‘‘आप को इस तरह मेरा बच्चा नहीं ले कर जाना चाहिए था. घबराहट के मारे मेरी तो जान ही निकल गई थी.’’
‘‘बहन, क्या करती, बच्चा इतनी बुरी तरह से रो रहा था और आप को कोई होश ही नहीं था. ऐसे में मुझे जो ठीक लगा मैं ने किया. थोड़ा घुमाते ही बच्चा सो गया. गुस्ताखी माफ करें,’’ युवती ने मीठी आवाज में कहा.
शायद यह उस के मधुर व्यवहार का ही अंजाम था कि तसलीमा को सहसा ही अपने गलत व्यवहार का एहसास हुआ. वाकई असलम नींद में भी हिचकियां ले रहा था
‘‘बहन, माफी तो मुझे मांगनी चाहिए कि तुम ने मेरा उपकार किया और मैं एहसान मानने के बदले नाराजगी जता रही हूं,’’ थोड़ा रुक कर तसलीमा फिर बोली, ‘‘दरअसल, इन हालात में मायका छोड़ कर मुझे जाना पड़ेगा, यह सोचा नहीं था.’’
‘‘ससुराल तो जाना ही पड़ता है बहन, यही तो औरत की जिंदगी है कि जाओ तो मुश्किल, न जाओ तो मुश्किल,’’ नीले बुरके वाली युवती बोली, साथ ही उस का मुसकराता चेहरा कुछ फीका पड़ गया.
‘‘हां, यह तो है,’’ तसलीमा बोली, ‘‘पहले जब भी ससुराल जाती थी तो मायके वालों से दोबारा मिलने की उम्मीद तो रहती थी, मगर इस बार…’’ इतना कहतेकहते तसलीमा को लगा कि उस का गला फिर से रुंध रहा है.
फिर उस ने बात बदलने के लिए पूछा, ‘‘आप अकेली हैं?’’
‘‘हां, अकेली ही समझो. जिस का दामन पकड़ कर यहां परदेस चली आई थी, वह तो अपना हुआ नहीं, तब किस के सहारे यहां रहती. इसलिए अब वापस पाकिस्तान लौट रही हूं. वहां रावलपिंडी के पास गांव है, वैसे मेरा नाम नजमा है और तुम्हारा?’’
‘‘तसलीमा.’’
तसलीमा सोचने लगी कि इनसान भी क्या चीज है. हालात के हाथों बिलकुल खिलौना. किसी और जगह मुलाकात होती तो हम दो अजनबी महिलाओं की तरह दुआसलाम कर के अलग हो जाते पर यहां…यहां दोनों ही बेताब हैं एकदूसरे से अपनेअपने दर्द को कहने और सुनने के लिए, जबकि दोनों ही जानती हैं कि कोई किसी का गम कम नहीं कर सकता पर कहनेसुनने से शायद तकलीफ थोड़ा कम हो और फिर समय भी तो गुजारना है. इसी अंदाज से तसलीमा बोली, ‘‘क्या आप के शौहर ने आप को छोड़ दिया है?’’
‘‘नहीं, मैं ने ही उसे छोड़ दिया,’’ नजमा ने एक गहरी सांस खींचते हुए कहा, ‘‘सच्ची मुसलमान हूं, कैसे रहती उस काफिर के साथ जो अपने लालची इरादों को मजहब की चादर में ढकने की नापाक कोशिश कर रहा था.’’
तसलीमा गौर से नजमा को देख रही थी, शायद उस के दर्द को समझने की कोशिश कर रही थी.
इतने में नजमा फिर बोली, ‘‘जब पाकिस्तान से हम चले थे तो उस ने मुझ से कहा था कि हिंदुस्तान में उसे बहुत अच्छा काम मिला है और वहां हम अपनी मुहब्बत की दुनिया बसाएंगे, पर यहां आ कर पता चला कि वह किसी नापाक इरादे से भारत भेजा गया है जिस के बदले उसे इतने पैसे दिए जाएंगे कि ऐशोआराम की जिंदगी उस के कदमों पर होगी.
‘‘मुझ से मुहब्बत सिर्फ नाटक था ताकि यहां किसी को उस के नापाक इरादों पर शक न हो. मजहब और मुहब्बत के नाम पर इतना बड़ा धोखा. फिर भी मैं ने उसे दलदल से बाहर निकालने की कोशिश की थी. कभी मुहब्बत का वास्ता दे कर तो कभी आने वाली औलाद का वास्ता दे कर, पर आज तक कोई दलदल से बाहर निकला है जो वह निकलता. हार कर खुद ही निकल आई मैं उस की जिंदगी से. आखिर मुझे अपनी औलाद को एक नेकदिल इनसान जो बनाना है.’’
तसलीमा ने देखा कि अपने दर्द का बयान करते हुए भी नजमा के होंठों पर आत्मविश्वास की मुसकान है, आंखों में उम्मीदें हैं. उस ने दर्द का यह रूप पहले कभी नहीं देखा था.
क्या नजमा का दर्द उस के दर्द से कम है? नहीं तो? फिर भी वह मुसकरा रही है, अपना ही नहीं दूसरों का भी गम बांट रही है, अंधेरी राहों में उम्मीदों का चिराग जला रही है. वह ऐसा क्यों नहीं कर सकती? फिर उस के पास तो अनवर जैसा शौहर भी है जो उस के एक इशारे पर सारी दुनिया उस के कदमों पर रख दे. क्या सोचेंगे उस के ससुराल वाले जब उस की सूजी आंखों को देखेंगे. कितना दुखी होगा अनवर उसे दुखी देख कर.
नहीं, अब वह नहीं रोएगी. उस ने खिड़की से बाहर देखा. जिन खेत-खलिहानों को पीछे छूटते देख कर उस की आंखें बारबार भीग रही थीं, अब उन्हीं को वह मुग्ध आंखों से निहार रही थी. कौन कहता है कि इन रास्तों से दोबारा नहीं लौटना है? कौन कहता है सरहद पार जाने वाली ये आखिरी गाड़ी है? वह लौटेगी, जरूर लौटेगी, इन्हीं रास्तों से लौटेगी, इसी गाड़ी में लौटेगी, जब दुनिया नहीं रुकती है तो उस पर चलने वाले कैसे रुक सकते हैं?<
तसलीमा ने असलम को सीने से लगा लिया और नजमा की तरफ देख कर प्यार से मुसकरा दी. अब दोनों की ही आंखें चमक रही थीं, दर्द के आंसू से नहीं बल्कि उम्मीद की किरण से.
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