मालपुआ , साधारण पुए से कई मामलों में भिन्न है । इसे तलने के बाद चाशनी में डुबोकर मिठास का पुट दिया जाता है । स्वाद बढ़ाने के लिए इसमें खोये का इस्तेमाल भी किया जाता है ।
चाशनी में नहाकर निखर गया मालपुआ
तिहासकारों का मानना है कि वैदिक साहित्य में अपूप नामक जिस मिठाई का उल्लेख हुआ है , वह पुआ ही है । यही पुआ , मालपुए का पुरखा समझा जाता है । मालपुआ भी पुए की तरह ही सूजी के घोल को तलकर तैयार किया जाता है और इसकी गणना पकवान की कोटि में होती है । इसे सौंफ और इलायची से सुवासित बनाया जाता है । मालपुआ आकार और परिष्कार में भी साधारण पुए से भिन्न होता है ।
यह कमोवेश गोलाकार नहीं होता , बल्कि चपटा होता है । इसे गहरा नहीं तला जाता और तलने के बाद चाशनी में डुबोकर अतिरिक्त मिठास का पुट दिया जाता है । इसके नाम के साथ जुड़ा शब्द ' माल ' उस खोये या मावे के कारण पड़ा है , जो इसको समृद्ध बनाता है । पंजाब में यह मिठाई मालपुए के नाम से जानी जाती है और इसे ही बंगाल में मालपुआ कहा जाता है । उत्तर भारत में लगभग सभी जगह मालपुए का कोई न कोई अवतार देखने और चखने को मिलता है । जो लोग खुद को ज्यादा नफासत पसंद समझते हैं , वह गाढ़ी चाश्नी में तर - बतर मालपुए की अपेक्षा उन हल्की मिठास वाले मालपुओं को पसंद करते हैं , जिन पर उपर से कमोवेश फीकी रबड़ी की परत चढ़ाई जाती है ।
आजकल शादी - ब्याह की काह दावतों में जलेबी की तरह मालपुओं की भी जुगलबंदी रबड़ी के साथ साधी जाती है । पश्चिमी और पूर्वी खानपान का संगम प्रस्तुत करन वाले कुछ उत्साही शेफ आजकल फ्यूजन के नाम पर फलधारी मालपुए पेश करने लगे हैं , जिन्हें आप क्रेप या पैन केक का अनुसरण करने वाला समझ सकते हैं । भारत के अलग अलग सूबों में स्थानीय जायके के अनुसार अलग - अलग तरह की पाक विधियां काम में लाई जाती हैं ।
राजस्थान में मालपुओं के लिए जो घोल तैयार किया जाता है , उसमें कद्दूकश किया हआ मावा काफी मात्रा में मिलाया । जाता है और इसका घोल पानी से नहीं , दूध से तैयार किया जाता है । आमतौर पर मालपुए के लिए मैदा सुजी या आटे का प्रयोग किया जाता है , पर कहीं कहीं दक्षिणी इलाके में चावल का आटा भी काम में लाते हैं । कहीं - कहीं मावे के स्थान पर केले को मसलकर मिश्रण में मिलाया जाता है । कुछ लोग आम या अनानास से भी अपने मालपुओं को सुस्वादु बनाते हैं । आमतौर पर बिना मावे के तले मालपूओं को खीर के साथ खाया जाता है । यह सात्विक मिठाई किसी शुभ कार्य के संपन्न होने पर या पूजा - पाठ के कार्यक्रमों में पारंपरिक रूप से बनाई जाती रही है ।
संभवतः केले का प्रयोग इसीलिए आरंभ हुआ कि अनाज के विकल्प के रूप में व्रत - उपवास के लिए भी मालपूओं को थाली में स्थान दिया जाता है । उत्तराखंड के देहाती इलाकों में पकाए जाने वाले मालपुए का आकार आज भी साधारण पुए जैसा होता है , सिर्फ इसके लिए तैयार किए जाने वाले घोल में मावे के छोटे - छोटे टुकड़े मिला दिए जाते हैं । बनाने वाले हलवाई का कौशल इस बात से परखा जाता है कि हर छोटे - छोटे मालपुए के भीतर मावे का एक छोटा टुकड़ा जरूर पहुंचे ।
मालपुए की गुणवत्ता परखने की एक और कसौटी भी है । मालपुए का घोल तैयार करने के बाद उसे कुछ देर तक अलग रखा जाता है , ताकि उसमें हल्का - सा खमीर चढ़ जाए । एक बड़ी चुनौती सही तरीके से | चाशनी तैयार करने की भी है । चाशनी सिर्फ मालपुओं को मीठा ही नहीं बनाती , बल्कि उनका जायका दोगुना भी करती है । केसर - इलायची आदि से उसे स्वादिष्ट बनाया जाता है । यदि आप इस स्वादिष्ट मिठाई का आनंद घर पर उठाना चाहते हैं , तब भारी - भरकम कढ़ाई में तलने की बजाय बड़े फ्राई पैन में भी तल सकते हैं । सिर्फ इन्हें धीमी आंच पर सेंकने की सावधानी बरतनी जरूरी है ।
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चाशनी में नहाकर निखर गया मालपुआ
तिहासकारों का मानना है कि वैदिक साहित्य में अपूप नामक जिस मिठाई का उल्लेख हुआ है , वह पुआ ही है । यही पुआ , मालपुए का पुरखा समझा जाता है । मालपुआ भी पुए की तरह ही सूजी के घोल को तलकर तैयार किया जाता है और इसकी गणना पकवान की कोटि में होती है । इसे सौंफ और इलायची से सुवासित बनाया जाता है । मालपुआ आकार और परिष्कार में भी साधारण पुए से भिन्न होता है ।
यह कमोवेश गोलाकार नहीं होता , बल्कि चपटा होता है । इसे गहरा नहीं तला जाता और तलने के बाद चाशनी में डुबोकर अतिरिक्त मिठास का पुट दिया जाता है । इसके नाम के साथ जुड़ा शब्द ' माल ' उस खोये या मावे के कारण पड़ा है , जो इसको समृद्ध बनाता है । पंजाब में यह मिठाई मालपुए के नाम से जानी जाती है और इसे ही बंगाल में मालपुआ कहा जाता है । उत्तर भारत में लगभग सभी जगह मालपुए का कोई न कोई अवतार देखने और चखने को मिलता है । जो लोग खुद को ज्यादा नफासत पसंद समझते हैं , वह गाढ़ी चाश्नी में तर - बतर मालपुए की अपेक्षा उन हल्की मिठास वाले मालपुओं को पसंद करते हैं , जिन पर उपर से कमोवेश फीकी रबड़ी की परत चढ़ाई जाती है ।
आजकल शादी - ब्याह की काह दावतों में जलेबी की तरह मालपुओं की भी जुगलबंदी रबड़ी के साथ साधी जाती है । पश्चिमी और पूर्वी खानपान का संगम प्रस्तुत करन वाले कुछ उत्साही शेफ आजकल फ्यूजन के नाम पर फलधारी मालपुए पेश करने लगे हैं , जिन्हें आप क्रेप या पैन केक का अनुसरण करने वाला समझ सकते हैं । भारत के अलग अलग सूबों में स्थानीय जायके के अनुसार अलग - अलग तरह की पाक विधियां काम में लाई जाती हैं ।
राजस्थान में मालपुओं के लिए जो घोल तैयार किया जाता है , उसमें कद्दूकश किया हआ मावा काफी मात्रा में मिलाया । जाता है और इसका घोल पानी से नहीं , दूध से तैयार किया जाता है । आमतौर पर मालपुए के लिए मैदा सुजी या आटे का प्रयोग किया जाता है , पर कहीं कहीं दक्षिणी इलाके में चावल का आटा भी काम में लाते हैं । कहीं - कहीं मावे के स्थान पर केले को मसलकर मिश्रण में मिलाया जाता है । कुछ लोग आम या अनानास से भी अपने मालपुओं को सुस्वादु बनाते हैं । आमतौर पर बिना मावे के तले मालपूओं को खीर के साथ खाया जाता है । यह सात्विक मिठाई किसी शुभ कार्य के संपन्न होने पर या पूजा - पाठ के कार्यक्रमों में पारंपरिक रूप से बनाई जाती रही है ।
संभवतः केले का प्रयोग इसीलिए आरंभ हुआ कि अनाज के विकल्प के रूप में व्रत - उपवास के लिए भी मालपूओं को थाली में स्थान दिया जाता है । उत्तराखंड के देहाती इलाकों में पकाए जाने वाले मालपुए का आकार आज भी साधारण पुए जैसा होता है , सिर्फ इसके लिए तैयार किए जाने वाले घोल में मावे के छोटे - छोटे टुकड़े मिला दिए जाते हैं । बनाने वाले हलवाई का कौशल इस बात से परखा जाता है कि हर छोटे - छोटे मालपुए के भीतर मावे का एक छोटा टुकड़ा जरूर पहुंचे ।
मालपुए की गुणवत्ता परखने की एक और कसौटी भी है । मालपुए का घोल तैयार करने के बाद उसे कुछ देर तक अलग रखा जाता है , ताकि उसमें हल्का - सा खमीर चढ़ जाए । एक बड़ी चुनौती सही तरीके से | चाशनी तैयार करने की भी है । चाशनी सिर्फ मालपुओं को मीठा ही नहीं बनाती , बल्कि उनका जायका दोगुना भी करती है । केसर - इलायची आदि से उसे स्वादिष्ट बनाया जाता है । यदि आप इस स्वादिष्ट मिठाई का आनंद घर पर उठाना चाहते हैं , तब भारी - भरकम कढ़ाई में तलने की बजाय बड़े फ्राई पैन में भी तल सकते हैं । सिर्फ इन्हें धीमी आंच पर सेंकने की सावधानी बरतनी जरूरी है ।
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