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Lalitha S Ki Kahani Dusra Adhyay Story in Hindi ललिता एस. दूसरा अध्याय

Lalitha S Ki Kahani Dusra Adhyay Story in Hindi ललिता एस. दूसरा अध्याय
Lalitha S Ki Kahani Dusra Adhyay Story in Hindi ललिता एस. दूसरा अध्याय


ललिता एस. दूसरा अध्याय
उमाजी और कविता के पुनर्मिलन से कैसे शुरू हो रहा था दोनों के जीवन का दूसरा अध्याय?



Dusra Adhyay Story
2 लाख रुपए का चैक देख कर कविता की आंखें फटी की फटी रह गईं. उसे लगा कि वह हर्षातिरेक से उछल पड़ेगी. आज उस की नौकरी का पहला दिन था और यह राशि उसे जौइनिंग अमाउंट के तौर पर दी गई थी. कविता किसी कवि की कल्पना की तरह खूबसूरत तो थी ही, प्रतिभाशाली भी थी, ऊपर से मेहनती. ऐसा संयोग किसी संतान में विरले ही देखने को मिलता है. श्रीहीन मातापिता के पास अपनी संतान को देने के लिए संस्कारों के सिवा और होता ही क्या है? कविता को देख कर सब उसे गुदड़ी का लाल कहते हैं. शुरू से ही कविता को पढ़ाई के लिए छात्रवृत्ति मिलती थी. आई आई टी और आई आई एम जैसी शिक्षा के मुश्किल पड़ावों को भी उस ने अपने बलबूते पर पार किया था. पढ़ाई पूरी होने से पहले ही कविता को 1 लाख रुपए मासिक आय पर नौकरी मिल गई. सुबह मां ने कविता को हंसीखुशी दफ्तर के लिए विदा किया था. दोपहर को मांपापा पड़ोसियों के जत्थे के साथ मिल कर यात्रा के लिए निकल पड़े थे. कविता मन ही मन योजनाएं बनाने लगी कि अगले हफ्ते मांपापा लौट आएंगे. इस सप्ताहांत में वह मांपापा की जरूरत की सारी चीजें खरीद कर घर भर देगी. जब वे लौट कर आएंगे तो उन से साफसाफ कह देगी कि अब वे आराम करेंगे और वह काम करेगी.

पलभर में ही जैसे कविता की सारी योजनाओं पर पानी फिर गया, जब उसे पता चला कि जिस बस में उस के मांपापा यात्रा कर रहे थे वह दुर्घटनाग्रस्त हो गई है. कविता को बारबार यह लग रहा था कि उस के मांपापा अवश्य सहीसलामत होंगे. पड़ोसियों के साथ कविता कैसे उस अस्पताल तक पहुंची, जहां उन घायलों को ले जाया गया था, उसे कुछ याद नहीं रहा. वहां उस ने मूर्छित पड़ी मां को पहचान लिया, लेकिन पापा का तो निर्जीव शरीर ही उसे प्राप्त हुआ था. पिता का शोक मनाने का भी वक्त नहीं था कविता के पास. मां के घायल शरीर को लोगों की मदद से किसी तरह उस ने दिल्ली के बड़े अस्पताल में और पिता के पार्थिव शरीर को वहीं के शवगृह में पहुंचाया. घर पहुंचते ही जैसे उस के सब्र का बांध टूट पड़ा और वह फूटफूट कर रोने लगी.


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Lalitha S Ki Kahani 
थोड़ी देर बाद मां का खयाल आते ही शरीर की समस्त ऊर्जा को बटोर कर वह मां को देखने अस्पताल पहुंची. मां को होश आ गया था. उन की हालत में काफी सुधार था. पर यह तो कविता को बाद में पता चला कि यह दीपक की लौ के बुझने से पहले का संकेत था. जातेजाते मां ने उस के जीवन से जुड़ी एक सचाई से उसे अवगत करा कर एक और झटका दे दिया. मां ने बताया था कि वह उन की नहीं बल्कि उमाजी की कोखजाई है. इस डर से कि उमाजी का वैभव देख कर, कहीं वह उन्हें छोड़ कर उमाजी के पास न चली जाए, इसलिए उन्होंने अब तक यह बात उस से छिपाई थी. मां ने किसी डायरी का जिक्र किया था, जिस में उन्होंने सारी बातें लिखी थीं.





कविता का सिर घूमने लगा. मस्तिष्क में विचारों के तूफान का बवंडर सा चल रहा था. पड़ोसी उसे सहारा दे कर ले गए थे. जिंदा लाश की तरह उठ कर चल दी थी वह उन के पीछेपीछे. मातापिता का दाहसंस्कार कर के कविता ने भारी कदमों से घर में प्रवेश किया. उस के पड़ोसी उसे घर तक छोड़ने आए थे. फिर धीरेधीरे सब अपनेअपने घरों को लौटने लगे. उमाजी भी वहीं थीं. सब के घर लौटने के बाद वे धीरेधीरे चल कर कविता के बगल में आ कर बैठ गईं. कविता उमाजी से परिचित थी. पर आज उन का नया परिचय जान कर, उसे उन से बात करने की इच्छा नहीं हुई. कविता को चुप देख कर उमाजी ने कहा, ‘‘बेटी, मां ने मेरे बारे में कुछ बताया?’’




अचानक कविता चीख उठी, ‘‘मुझे बेटी कह कर मुझ पर अपना हक मत जताइए. मेरी सिर्फ एक ही मां थी, जो अब इस दुनिया में नहीं हैं. अब आप कृपा कर के मुझे अकेला छोड़ दीजिए,’’ इतना कह कर वह उठ खड़ी हुई. उमाजी भी उठ कर अपनी आंखों के कोरों को पोंछती हुई दरवाजे की ओर बढ़ गईं. कविता दरवाजा बंद कर के पलटी, शरीर निष्प्राण सा हो गया था. सोफे पर निढाल हो कर गिर पड़ी. वहीं पड़ेपड़े वह विलाप करने लगी, ‘मांपापा, आप ने कैसे सोच लिया कि वैभव के लोभ में आप की बेटी आप को छोड़ कर उमा आंटी के पास चली जाएगी. आप मुझे मंझधार में छोड़ कर चले गए. अब आप की बेटी आप के बगैर कैसे रहेगी? मुझे भी साथ क्यों नहीं ले लिया? अब किस के लिए मैं कमाऊं…’


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सुबह होते ही सब से पहले उस ने मां की डायरी ढूंढ़ निकाली  उस डायरी में कविता के जन्म की हकीकत से ले कर उस की नौकरी लगने तक की हर बात का ब्योरा था. मां ने लिखा था-

‘बेटी कविता, तुम ने मुझे मां का दरजा दे कर संसार की सब से ऊंची पदवी पर बिठा दिया. जब तुम समझने लायक हो जाओगी तो हमारा तुम्हें तुम्हारे जीवन से जुड़ी सचाई के बारे में बताना जरूरी है, पर हम इतना साहस जुटा पाएंगे या नहीं, पता नहीं. तब मुझे खयाल आया कि क्यों न मैं डायरी लिखूं, जिस में विस्तार से रोजमर्रा की सारी जानकारी हो. इस तरह मैं ने लिखना शुरू किया. ‘उमा और मैं कालेज में साथ पढ़ते थे. उमा के पिता बचपन में ही गुजर गए थे. उमा का ब्याह एक संपन्न घराने में हुआ था. बेहद खूबसूरत थी उमा. वर पक्ष के लोगों ने उसे कहीं देखा और खुद चल कर उस की मां से उस का हाथ मांगा था. उमा के ससुर गांव के बड़े जमींदार थे और सपरिवार वहीं रहते थे. उस के पति अनिल का इसी शहर में कारोबार था. शहर के आलीशान घर में उमा को अपने पति के साथ रहना था.’

यहां तक पढ़ने के बाद कविता सोचने लगी, ‘जब वे लोग इतने संपन्न थे तो उमाजी ने मुझे मां को क्यों दे दिया? या फिर क्या मैं उमाजी की नाजायज संतान हूं?’ वह फिर से डायरी पढ़ने लगी- ‘ससुराल का वैभव देख कर उमा को अपनेआप पर विश्वास नहीं हुआ. वह सोचने लगी कि घर में रोकटोक करने वाला तो कोई नहीं है, वहां उस का एकछत्र साम्राज्य होगा. लेकिन जल्द ही उस का भ्रम दूर हो गया, क्योंकि उसे पता चल गया था कि अनिल तो मां के हाथ की कठपुतली थे. दूर रह कर भी पूरे घर का संचालन उस की सास किया करती थी. इस बात की खबर नौकरों को भी थी, इसलिए उस घर में उस की हैसियत एक शोपीस जितनी ही थी. ‘जब पहली बार उमा को अपनी कोख में किसी जीव के सृजन का आभास हुआ तो वह खुशी से झूम उठी कि कोई ऐसा आने वाला है जो उस का अपना होगा. जब यह खुशखबरी उस ने अपने पति अनिल को सुनाई तो वे भी खुश दिखे थे. सास तो खबर सुनते ही दौड़ी चली आई थी. उसे जांच के लिए अस्पताल ले जाया करती थी.


‘8वां महीना लग गया, तो सास ने उमा को बुला कर कह दिया कि बहू, तैयारी कर लो. तुम्हारी जचगी गांव में होगी. उमा ने कोई तर्क नहीं किया, क्योंकि उसे पता था कि उस की कोई नहीं सुनेगा. उमा को जिस दिन प्रसव पीड़ा शुरू हुई, दुर्गा दाई को बुला लिया गया. दाई अनुभवी थी, उस की मदद से प्रसव आसानी से हो गया. बच्चे के रोने की आवाज सुन कर उमा की ममता जाग उठी. लेकिन बच्चे को नहलाने के लिए ले कर गई हुई दाई, वापस नहीं लौटी. ये भी नहीं बताया कि बेटा हुआ या बेटी. उमा ने जब बच्चे के बारे में पूछा तो सास ने कह दिया कि बच्चा मर गया. कई दिनों तक उमा को मालूम ही नहीं पड़ा कि बच्चा मरा नहीं था, बल्कि मार दिया गया था, क्योंकि उस का दोष यह था कि वह लड़की थी.

‘दूसरी बार जब उमा गर्भवती हुई तो उस ने अनिल से कहा कि इस बार जचगी के लिए वह गांव नहीं जाना चाहती. यहां शहर में डाक्टरों की कमी नहीं है. पिछले बार की तरह इस बार भी वह अपने बच्चे को खोना नहीं चाहती. तब जा कर अनिल ने उमा को वास्तविकता से अवगत कराया था और कहा था-हमारे घर में बेटियां जन्म नहीं लेतीं. यह हमारी शान के खिलाफ है. वास्तविकता जान कर तड़प उठी थी उमा. उस ने अनिल से कहा था कि आप लोगों ने यह अच्छा नहीं किया. लड़कियां ही तो बेटे को जन्म देती हैं. इस तरह लड़कियों को खत्म किया जाएगा तो प्रकृति का संतुलन ही बिगड़ जाएगा. आप लोगों ने एक मासूम की जान ले कर संगीन जुर्म किया है, पाप किया है और यह कानून के खिलाफ है.

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‘अनिल ने विदू्रप सी हंसी हंसते हुए कहा था कि पापपुण्य और कानून की बातें हमें मत सिखाओ. हमारे खिलाफ जाने वाले को हम नहीं बख्शते. आगे से ऐसी बातें करने की हिमाकत न करना. उमा समझ गई कि इतने सारे अनाथालयों और अस्पतालों को धनराशि प्रदान करना सिर्फ दिखावा है. वास्तव में ये तो मनुष्य की खाल में छिपे हुए भेडि़ए हैं. अपनेआप को कोसते हुए उमा इस बार भी जचगी के लिए गांव चल पड़ी. इस बार उमा ने बेटे को जन्म दिया, इसलिए सास ने उस की बलाएं लीं. ‘उमा का बेटा 3 साल का हो गया तो उसे अपने गर्भ में फिर किसी हलचल का आभास हुआ. इस बार उमा ने निश्चय किया कि गर्भस्थ शिशु यदि बेटी हुई तो उसे हर हालत में बचाना है. उस ने सोचा कि लोहे को लोहे से ही काटना होगा. उस ने अपने पति और सास को विश्वास दिला दिया कि इस परिवार की रीतिरिवाजों का उसे भी खयाल है. कुदरत ने इस परिवार का कुलदीपक तो उसे दे ही दिया है, इसलिए अब की बार बेटी हुई तो वह, वे जैसा चाहेंगी वैसा ही करेगी. उमा जैसी सीधीसादी औरत के लिए उन दरिंदों को अपने विश्वास में लेना इतना आसान काम न था, पर एक मां के लिए एड़ीचोटी का जोर लगा देना कोई मुश्किल नहीं था.


‘धीरेधीरे उस ने पति को मना लिया कि जचगी के लिए गांव जाने के बजाय क्यों न दाई को यहां बुला लिया जाए. जचगी वह अस्पताल में ही करवाना चाहती है. अगर लड़की हुई तो वह खुद बच्चे को दाई के हाथों सौंप देगी. इस बात से किसी को कोई एतराज नहीं था. ‘उमा मुझे समयसमय पर फोन कर के और कभीकभी मां के घर आने पर अपनी गृहस्थी की सारी बातें बताया करती थी और कई मामलों में मेरी राय भी लेती थी. मेरी शादी को 7 साल हो गए थे, पर अभी तक मेरी कोई संतान नहीं थी. उस दिन जब उमा मिली तो वह मेरे पास आ कर गिड़गिड़ाने लगी कि इस बार अगर बेटी पैदा हुई तो मैं उसे गोद ले लूं. अंधे को क्या चाहिए, दो आंखें. लेकिन मैं ने एक शर्त रखी-उमा, यह बच्ची सिर्फ मेरी होगी. तुम उस से मिलने या बात करने की कोशिश नहीं करोगी. उसे कभी पता नहीं चलना चाहिए कि तुम ने उसे जन्म दिया है. उमा ने मेरी सारी शर्तें मान लीं. उस दिन मैं ने उमा के चेहरे पर फैली शांति देखी थी. समय आने पर तुम्हें खबर भिजवा दूंगी, कह कर चली गई उमा. ‘दाई के आने पर उमा ने धीरेधीरे उसे अपने बस में कर लिया. उस ने दाई के पैर पकड़ लिए, कहा कि इस बार अगर बच्ची हुई तो उसे बचा लेना दाई, तुम जितना चाहो उतने पैसे मैं तुम्हें दूंगी. उमा ने दाई से आगे कहा कि अगर बच्ची पैदा हुई तो आप उसे मेरी सहेली के पास पहुंचा देना.’ मां ने आगे लिखा था, ‘योजना के मुताबिक सबकुछ हुआ. इस तरह मेरी गुडि़या मुझे मिल गई. अपने बच्चे को खुद से अलग करते समय उमा फूटफूट कर रोई थी. पर इस दुख से बढ़ कर उन आतताइयों को मात दे कर, अपनी बच्ची को जिंदा रख पा लेने का सुख उसे जीने की प्रेरणा दे रहा था. लेकिन उमा में अब और उन दरिंदों से लड़ने की शक्ति नहीं बची थी. उमा ने अपना औपरेशन करवा लिया ताकि वह अब और बच्चे को जन्म देने के काबिल ही न रहे.


‘उमा ने अपना वादा पूरा किया और दूर से ही तुम्हें फलतेफूलते देख कर खुशी से फूली नहीं समाती थी. माएं ऐसी ही होती हैं, जो अपनी संतान की खुशी में ही तृप्तता का अनुभव करती हैं.’ काफी दिनों के बाद मां ने डायरी लिखी थी. शायद कविता की परवरिश के पीछे उन्हें वक्त ही नहीं मिला होगा. डायरी का आखिरी पन्ना बचा था. मां ने लिखा था- ‘उमा के दुखों का अभी जैसे अंत नहीं हुआ था. उस का बेटा दिनबदिन बिगड़ता जा रहा था. देर रात गए घर लौटता. वह टोकती तो पिता और दादी बेटे का ही पक्ष लेते. वे कहते-उस की जीवनशैली अमीरों जैसी है. जिस ने गरीबी में अपना जीवन व्यतीत किया हो वह क्या जाने अमीरों के रंगढंग. अपने पिता और दादी से शह पा कर वह अपनी मां का ही अपमान करने लगा.’ मां की डायरी पढ़ने के बाद कविता, उमाजी के प्रति अपने व्यवहार को सोचसोच कर ग्लानि से भर गई. जिस ने मेरे अस्तित्व को बनाए रखने के लिए, क्याकुछ नहीं किया, उसे ही मैं ने खरीखोटी सुना दीं? धिक्कार है मुझ पर. अब तो पता नहीं, मैं उन से मिल भी पाऊंगी या नहीं. बाहर घंटी की आवाज से कविता के विचारों की शृंखला टूटी. बाहर उमाजी सहमी सी खड़ी थीं. उन्हें देख कर उसे सुखद आश्चर्य हुआ. उस ने कहा, ‘‘मां, अंदर आइए.’’

कविता के मुंह से अपने लिए ‘मां’ संबोधन सुन कर उमा कुछ अचंभित सी, कुछ गद्गद सी, छलक पड़ने को बेताब आंसुओं को मुश्किल से रोकती हुई अंदर आईं. कविता ने सब से पहले उन से अपने व्यवहार के लिए क्षमा मांगी, फिर उन्हें मां की डायरी के बारे में बताया. फिर दोनों ने ढेर सारी बातें कीं. अंत में जातेजाते उन्होंने कहा, ‘‘बेटी, अब तो तुम्हारे दादादादी भी नहीं रहे. तुम्हारे पिता भी काफी बदल गए हैं. अपने किए का पछतावा है उन्हें. मैं उन से बात करूंगी. वे तुम्हें अवश्य अपना लेंगे. अब तुम हमारे साथ आ कर रहो.’’ उन की बातें सुन कर कविता भड़क गई, ‘‘किस पिता की बात कर रही हैं आप? मेरे पिता तो गुजर गए हैं. जिन की बात आप कर रहीं हैं उन्होंने मेरा नामोनिशान मिटाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी. अब पछताने पर क्या मैं वापस आ जाऊं? घिन आती है मुझे ऐसे लोगों से जो अपने चेहरे पर मुखौटा पहन कर शरीफ बनने का दावा करते हैं.’’ फिर अपने गुस्से पर काबू पाते हुए कविता ने उमा से कहा, ‘‘मां, मुझे आप पर गर्व है. आप ने सारी जिंदगी पुरुषों की गुलामी की है. छोडि़ए उन सब को. आ जाइए अपनी बेटी के पास…’’


‘‘पर बेटी…’’

‘‘आप ने तो मुझे मेरे कातिलों से बचा कर एक बहादुरी की मिसाल कायम की है. अब तो मैं भी आप के साथ हूं. जाइए, अपने पति को बता दीजिए कि जिस बच्ची को उन्होंने मारना चाहा था, वह जिंदा है और आप आगे की जिंदगी उसी के साथ गुजारना चाहती हैं.’’

‘‘आं… हं…’’ उमा बुदबुदाईं.

‘‘मां, आप की सेवा कर के अपनी जिंदगी की इस दूसरी पारी में न सिर्फ मुझे जीने का मकसद मिलेगा बल्कि कुछ हद तक उस मातापिता के कर्ज को उतारने का एहसास भी होगा जिन्होंने मुझे पालापोसा.’’

‘‘चलती हूं, बेटी, अपना खयाल रखना,’’ कह कर उमा चली गईं. सारी रात कविता सो नहीं पाई. सुबह कब आंख लग गई पता ही नहीं चला. दरवाजे पर घंटी की आवाज सुन कर नींद टूटी. देखा तो मां दरवाजे पर बैग लिए खड़ी थीं.

‘‘बेटी, मैं ने सदा के लिए वह घर छोड़ दिया है.’’

‘‘मां…’’ कह कर कविता उन से लिपट गई.

मां के आ जाने से अपनी जिंदगी के इस दूसरे अध्याय को शुरू करने में कविता को नई स्फूर्ति का एहसास हुआ. उमाजी भी अपनी बेटी के साथ हुए इस पुनर्मिलन से बेहद खुश थीं. उन के जीवन का भी तो दूसरा सुखद अध्याय शुरू होने वाला था.

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