मेहदी हसन की गाई ग़ज़लों की ये पंक्तियां काफी असरदार हैं
हफ़ीज़ होशियारपुरी
ज़माने भर के ग़म या इक तिरा ग़म
ये ग़म होगा तो कितने ग़म न होंगे
मोहब्बत करने वाले कम न होंगे
तिरी महफ़िल में लेकिन हम न होंगे
मैं अक्सर सोचता हूँ फूल कब तक
शरीक-ए-गिर्या-ए-शबनम न होंगे
सितम ही इश्क़ में पैहम न होंगे...
ज़रा देर-आश्ना चश्म-ए-करम है
सितम ही इश्क़ में पैहम न होंगे
दिलों की उलझनें बढ़ती रहेंगी
अगर कुछ मशवरे बाहम न होंगे
ज़माने भर के ग़म या इक तिरा ग़म
ये ग़म होगा तो कितने ग़म न होंगे
वो मेरे हाल से महरम न होंगे...
कहूँ बेदर्द क्यूँ अहल-ए-जहाँ को
वो मेरे हाल से महरम न होंगे
हमारे दिल में सैल-ए-गिर्या होगा
अगर बा-दीदा-ए-पुर-नम न होंगे
तिरी फ़ुर्क़त के सदमे कम न होंगे...
अगर तू इत्तिफ़ाक़न मिल भी जाए
तिरी फ़ुर्क़त के सदमे कम न होंगे
Top urdu shayar
'हफ़ीज़' उन से मैं जितना बद-गुमाँ हूँ
वो मुझ से उस क़दर बरहम न होंगे
हफ़ीज़ होशियारपुरी
आख़िर इस दर्द की दवा क्या है...
मिर्ज़ा ग़ालिब
दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है
आख़िर इस दर्द की दवा क्या है
हम हैं मुश्ताक़ और वो बे-ज़ार
या इलाही ये माजरा क्या है
फिर ये हंगामा ऐ ख़ुदा क्या है...
मैं भी मुँह में ज़बान रखता हूँ
काश पूछो कि मुद्दआ' क्या है
जब कि तुझ बिन नहीं कोई मौजूद
फिर ये हंगामा ऐ ख़ुदा क्या है
निगह-ए-चश्म-ए-सुरमा सा क्या है...
ये परी-चेहरा लोग कैसे हैं
ग़म्ज़ा ओ इश्वा ओ अदा क्या है
Top mehdi hasan ghazal
शिकन-ए-ज़ुल्फ़-ए-अंबरीं क्यूँ है
निगह-ए-चश्म-ए-सुरमा सा क्या है
जो नहीं जानते वफ़ा क्या है...
सब्ज़ा ओ गुल कहाँ से आए हैं
अब्र क्या चीज़ है हवा क्या है
हम को उन से वफ़ा की है उम्मीद
जो नहीं जानते वफ़ा क्या है
मैं नहीं जानता दुआ क्या है...
हाँ भला कर तिरा भला होगा
और दरवेश की सदा क्या है
जान तुम पर निसार करता हूँ
मैं नहीं जानता दुआ क्या है
मुफ़्त हाथ आए तो बुरा क्या है...
मैंने माना कि कुछ नहीं 'ग़ालिब'
मुफ़्त हाथ आए तो बुरा क्या है
मिर्ज़ा ग़ालिब
गुलों में रंग भरे बाद-ए-नौ-बहार चले...
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
गुलों में रंग भरे बाद-ए-नौ-बहार चले
चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले
क़फ़स उदास है यारो सबा से कुछ तो कहो
कहीं तो बहर-ए-ख़ुदा आज ज़िक्र-ए-यार चले
बड़ा है दर्द का रिश्ता ये दिल ग़रीब सही...
कभी तो सुब्ह तिरे कुंज-ए-लब से हो आग़ाज़
कभी तो शब सर-ए-काकुल से मुश्क-बार चले
बड़ा है दर्द का रिश्ता ये दिल ग़रीब सही
तुम्हारे नाम पे आएँगे ग़म-गुसार चले
दफ़्तर-ए-जुनूँ की तलब...
जो हम पे गुज़री सो गुज़री मगर शब-ए-हिज्राँ
हमारे अश्क तिरी आक़िबत सँवार चले
हुज़ूर-ए-यार हुई दफ़्तर-ए-जुनूँ की तलब
गिरह में ले के गरेबाँ का तार तार चले
तो सू-ए-दार चले...
मक़ाम 'फ़ैज़' कोई राह में जचा ही नहीं
जो कू-ए-यार से निकले तो सू-ए-दार चले
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़