मामला चाहे प्रेम का हो या सियासत की, साजिश हर जगह दिखाई पड़ती है। पेश है 'साज़िश' पर शायरों के अल्फ़ाज़-
क़ातिल की सारी साज़िशें नाकाम ही रहीं
चेहरा कुछ और खिल उठा ज़हराब गर पिया
चेहरा कुछ और खिल उठा ज़हराब गर पिया
~बद्र वास्ती
मैं आप अपनी मौत की तय्यारियों में हूँ
मेरे ख़िलाफ़ आप की साज़िश फ़ुज़ूल है
~शाहिद ज़की
रिश्तों की दलदल से कैसे निकलेंगे
हर साज़िश के पीछे अपने निकलेंगे
हर साज़िश के पीछे अपने निकलेंगे
~शकील जमाली
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न ही बिजलियाँ न ही बारिशें न ही दुश्मनों की वो साज़िशें
भला क्या सबब है बता ज़रा जो तू आज भी नहीं आ सका
~हिलाल फ़रीद
समझने ही नहीं देती सियासत हम को सच्चाई
कभी चेहरा नहीं मिलता कभी दर्पन नहीं मिलता
कभी चेहरा नहीं मिलता कभी दर्पन नहीं मिलता
~अज्ञात
हुई हैं दैर ओ हरम में ये साज़िशें कैसी
धुआँ सा उठने लगा शहर के मकानों से
~कुमार पाशी
फिर चीख़ते फिर रहे बद-हवास चेहरे
फिर रचे जानें लगें हैं षड्यंत्र गहरे
फिर रचे जानें लगें हैं षड्यंत्र गहरे
~माधव अवाना
तोड़ दो बढ़ कर अँधेरी रात के षड़यंत्र को
कुछ नहीं तो आरज़ू-ए-रौशनी पैदा करो
~अशोक साहनी
पड़े हैं नफ़रत के बीच दिल में बरस रहा है लहू का सावन
हरी-भरी हैं सरों की फ़सलें बदन पे ज़ख़्मों के गुल खिले हैं
हरी-भरी हैं सरों की फ़सलें बदन पे ज़ख़्मों के गुल खिले हैं
~हारून फ़राज़
हर आदमी में होते हैं दस बीस आदमी
जिस को भी देखना हो कई बार देखना
~निदा फ़ाज़ली