महर्षि रमण |
महर्षि रमण आध्यात्मिक संत
Anand Hamesha Apne Bhitar Hona Chahiye मुखड़ा क्या देखेदर्पण हमारा सच्चा स्वभाव मुक्ति है ।
Anand Hamesha Apne Bhitar Hona Chahiye मुखड़ा क्या देखेदर्पण हमारा सच्चा स्वभाव मुक्ति है ।
लेकिन हम कल्पना करते हैं कि हम बल है , (Anand Hamesha)और मुक्त होने के लिए विविध श्रमसाध्य साधनाएं करते हैं । जबकि हर समय हम मुक्त ही होते हैं । (Anand Hamesha)
जब तक संस्कारों का नाश नहीं हुआ , संदेह और गलत धारणाएं बनी रहेंगी । इन्हें नष्ट करने के लिए सारे उपाय किए जाते हैं । गुरु की बताई गई पद्धति से अभ्यास करने से वे बेअसर जाते हैं ।
सभी जीव सदैव आनंद की इच्छा रखते हैं । ऐसा आनंद , जिसमें दुख का कोई स्थान न हो । जबकि हर आदमी अपने आप से सबसे अधिक प्रेम करता है । इस प्रेम का केवल एक कारण है , और वह है आनंद । इसलिए आनंद अपने स्वयं के भीतर हमेशा होना चाहिए । मन अंतरात्मा की एक आश्चर्यजनक शक्ति है ।
जो हमारे शरीर के भीतर में मैं के रूप में उदित होता है , वह मन है । जब सूक्ष्म मन मस्तिष्क और इंद्रियों के द्वारा बहुमुखी होता है , तो स्थूल नाम , रूप की पहचान होती है । जब वह हृदय में रहता है , तो नाम , रूप विलुप्त हो जाते हैं । यदि मन हृदय में रहता है , तो ' मैं ' या अंधकार , जो समस्त विचारों का स्रोत है , चला जाता है और केवल आत्मा या वास्तविक शाश्वत ' मैं प्रकाशित होता है ।
जहां अंधकार लेशमात्र प्रकाशित नहीं होता , वहां आत्मा है । हमारा सच्चा स्वभाव मुक्ति है । लेकिन हम , कल्पना करते हैं कि हम बद्ध है , और मुक्त , होने के लिए विविध श्रमसाध्य साधनाएं करते हैं । जबकि हर समय हम मुक्त ही होते हैं । यह बात तब समझ में आएगी , जब हम उस भूमिका पर होंगे । तब हमें आश्चर्य होगा कि जो हम सर्वदा थे और हैं , उसे प्राप्त करने के लिए हमने कठोर परिश्रम किया ।
एक साधक सो जाता है । स्वप्न में वह विश्वयात्रा पर निकलता है , और पर्वत , घाटी , जंगल , विविध देश , रण और पृथ्वी के कई खंडों को पार करता हुआ इस देश में वापस आता है । उसी . क्षण वह जग जाता है और देखता है कि वह अपनी जगह से एक इंच भी दूर नहीं गया है । ठीक इसी प्रकार का जन्म - मरण रूपी संसार का अनुभव है । यह पूछने पर , कि हम स्वतंत्र होते हुए भी बद्ध होने की कल्पना क्यों करते हैं , मेरा उत्तर यह है कि यह सब मन अर्थात माया है ।
अज्ञानी केवल मन को देखता है , जो हृदयस्थ शुद्ध चेतना के प्रकाश का प्रतिबिंब है । हृदय के विषय में उसका अज्ञान कायम है , क्योंकि उसका मन बहिर्मुख है , एवं उसने कभी भी अपने मूल की खोज नहीं की । घड़ें में रह रहा पानी घड़े के सीमित आकाश में महान सूर्य को प्रतिबिंबित करता है , ऐसे ही मनुष्य के मन में रहने वाली वासनाएं प्रतिबिंब के लिए माध्यम का कार्य करते हुए हदय से प्रकट होने वाले चैतन्य के सर्वव्यापक अनंत प्रकाश को प्रतिबिंबित करती हैं । इस प्रतिबिंब की घटना को मन कहा जाता है । केवल इस प्रतिबिंब को देखकर मोहित हुआ अज्ञानी स्वयं को सीमित जीव मानता है ।
लोग पूर्ण आत्मा के स्मरण और विस्मरण की बात करते हैं , लेकिन स्मरण और विस्मरण , दोनों विचार के रूप हैं । विचारों के रहने तक ये आते - जाते रहेंगे , किंतु सत्य इन दोनों से परे है । स्मृति और विस्मृति वैयक्तिक जीव पर आश्रित हैं । जब कोई उसे ढूंढता है , तो वह नहीं मिलता , क्योंकि वह सत्य नहीं है । इसलिए यह अहंकार , माया और अज्ञान का पर्याय है । अज्ञान कभी भी नहीं था , यह जानना सारे आध्यात्मिक उपदेशों का लक्ष्य है । जब तक संस्कारों का नाश नहीं हुआ , संदेह और गलत धारणाएं बनी रहेंगी । इन संदेहों तथा गलत धारणाओं को नष्ट करने के लिए सारे उपाय किए जाते हैं ।
ऐसा करने के लिए उसके मूल को काट देना चाहिए । संस्कार वह मूल है । गुरु की बताई गई पद्धति से अभ्यास करने से वे बेअसर जाते हैं । गुरु इतना कार्य शिष्य के लिए छोड़ देता है , जिससे वह स्वयं समझ सके कि अज्ञान का अस्तित्व नहीं है । कुछ असाधारण लोग सत्य को केवल एक बार सुनकर दृढ़ ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं । नए साधकों को ज्ञान प्राप्त करने में अधिक समय लगता है ।