हंसी - मजाक से दिल और दिमाग का बोझ कम होता है । खुश रहने से आपके भीतर सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है और आप अपने चारों ओर खुशियां बांटते हैं । क्या पढूं , कित्ता पढं ?
क्या पढूं , कित्ता पढ़ू |
कभी स्कूली पढ़ाई के दौरान पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी जी का एक निबंध पढ़ा था- ' क्या लिखू ? ' आज उन्हीं की तर्ज पर यह पूछने को मन हो रहा है- ' क्या पढूं ? ' दरअसल , बचपन में बड़े - बूढ़े घर पर और गुरुजन पाठशालाओं में यह घुट्टी पिलाया करते थे कि पढ़ोगे लिखोगे , बनोगे नवाब ' , लेकिन खेलने - कूदने पर भी नवाब ( पटौदी ) बनते देख हमने पढ़ने पर इतना जोर कभी दिया ही नहीं ।
आजकल के बच्चों को 98 या 99 प्रतिशत अंकों से उत्तीर्ण होते और चार - पांच अलग - अलग कोचिंग क्लासेस को इन बच्चों की विराट सफलता पर अलग - अलग गर्व करते देखता हूं तो खुद पर शर्मिंदा होते हुए खुश भी हो लेता हूं कि इतने टोटल परसेंटाइल में तो अपन लगातार तीन कक्षाएं कूद जाते थे । तो उतना ही पढ़ा , जितनी जरूरत थी । मतलब , पेट की भूख जितना खाना । ज्यादा पढ़ लेते तो ' अकल का अजीर्ण ' हो जाता । कम उम्र में ही कॉलेज पहुंच गए तो मोटे - मोटे पोथे सामने आ गए ।
तब भी इस बाल मस्तिष्क में यही सवाल उठे थे कि आखिर क्या पढूं ... और कित्ता पहूं । कॉलेज के बाहर ही उन मोटे पोथों के सरल और तरल विकल्प के रूप में दस - बीस पन्नों की गारंटीड सक्सेस मिल जाती थी । उनकी पूंछ पकड़कर मास्टर डिग्री तक की वैतरणी पारकर गारंटीड सक्सेस पा गए । तब तो पढ़ने से जैसे - तैसे बच निकले , मगर जिंदगी की किताब तो अभी पढ़नी बाकी थी न । पढ़ने से पिंड नहीं छूटा तो नहीं छूटा । जिस उम्र में कोर्स पढ़ना था , तब गुलशन नन्दा , राजवंश , वेदप्रकाश शर्मा जैसे महान लेखक दिमाग में चढ़ गए ।
आसपास की तमाम लाइब्रेरियां खंगाल डालीं , इस बीच अखबार पढ़ना तो जारी ही था । अखबार के नाम से लगाकर प्रिंट लाइन तक नियमित रूप से पढ़ना दादाजी विरासत में दे गए थे । तब न टीवी होते थे न मोबाइल , जो पढ़ने से मुक्ति दिला देते । थोड़ी समझ बढ़ी तो यह समझ आया कि अपन जो पढ़ रहे हैं , यह तो ' लुगदी ' है । फिर अमृतलाल नागर , श्रीनरेश मेहता , परसाई , शरद जोशी जैसे बड़े लिक्खाड़ अच्छे लगने लगे । इन्हें बांचते - बांचते घोड़ी चढ़ गए । थोड़े समय पत्नी पुराण बांचते रहे फिर बाल कांड आ गए ।
मतलब पढ़ना लगा ही रहा । इस बीच दफ्तरी आदेश अनिवार्य रूप से पढ़ने और अनुपालन करने की कवायद भी जारी रही । पिछले दिनों जब देश भर में TEAINERS कोरोना से बचने के लिए घर बंदी कर दी गई , तब बनाने , खाने , सोने और पढ़ने के अलावा कोई और काम ही नहीं बचा । पढ़ो तो क्या पढ़ो , इसका कोई संकट ही नहीं था ।
किताबें घर में नहीं भी हों तो कोई हर्ज नहीं । बच्चे - बच्चे के पास एंड्राइड फोन है । चारों वेद , महापुराण , रामायण , महाभारत , श्रीमद्भागवत और प्रेमचंद से लगाकर अभी तक के उपन्यासकारों , कहानीकारों , कवियों और यहां तक कि थर्ड क्लास साहित्य भी डिजिटल फॉर्म में उपलब्ध हो गया । पढ़ो बेटा कितना पढ़ते हो ! इस कोरोना कालखंड में श्रीखंड अमरस ही नहीं बने , लेकिन खूब कविताएं , गजलें , लघुकथाएं , कथाएं , व्यंग्य रचे गए और तमाम साहित्यिक समूहों में जमकर ठेले गए , जिन्हें पढ़ना और उन पर लंबी प्रशंसात्मक टिप्पणियां करना अनिवार्य प्रश्न ' की तरह अनिवार्य था ।
लाजमी था कि रचना पढ़ी ही जाए । तो जिंदगी भर में जितना नहीं पढ़ा , उतना पिछले चार - पांच महीनों में पढ़ - पढ़कर दुहरा हो चुका हूं । इस पढ़ाई में दिन में दस - दस बार फेसबुक और व्हाट्सएप पर आने वाले ज्ञानवर्धक धार्मिक - सामाजिक - राजनीतिक संदेश शामिल नहीं हैं । अब समझ ही नहीं आ रहा कि आखिर अब इस उम्र में क्या पहूं और कित्ता पढूं ! कोई तो मेरा चश्मा मोटा होने से बचाओ !