Pahchan Hindi Kahaniपहचान-भाग 1: रामलाल चाचा के घर आने से बच्चे क्यों उत्साहित थे? |
पहचान-भाग 1: रामलाल चाचा के घर आने से बच्चे क्यों उत्साहित थे?
जिन रामलालजी को मैं ने निपट गंवार कह कर कदमकदम पर अपमानित किया था, आज क्यों उन के प्रति मेरी सारी धारणाएं बदल गई थीं? क्यों वे अपनों से बढ़ कर नजर आ रहे थे?
स्मिता भूषण
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‘‘मां, रामलाल चाचा आए हैं,’’ सुरभि ने दरवाजे से ही आवाज देते हुए कहा. फिर उस ने बैठक में ही टंगा रैकेट उठाया और बाहर खेलने भाग गई.
‘‘ओफ्फोह, बोर करने आ गए साहब,’’ अखिलेश झट कुरसी खींच कर बैठ गया और कोर्स की किताब में मुंह छिपा लिया. उन की बातें सुनने से अच्छा उसे पढ़ाई करना लगता था. यों तो वह किसी के कहनेसुनने से शायद ही कभी पढ़ने बैठता था. मेरे पति भी अभी दफ्तर से लौटे नहीं थे.
हालांकि मैं भी ब्रैडरोल का मसाला तैयार करने में व्यस्त थी. पर रसोईघर तक आने में उन्हें कोई संकोच थोड़े ही होता. अत: काम छोड़ कर चुपचाप सिंक में हाथ धोने लगी. अभी हाथ पोंछ ही रही थी कि जनाब सीधे चौके तक आ पहुंचे. सारा तामझाम देख कर, मसालों की चटकदार खुशबू नथुनों में भरते हुए बोले, ‘‘वाहवाह, लगता है आज ब्रैडरोल बनेंगे.’’
‘‘हां, बच्चों को भूख लग रही है, इसलिए बना रही हूं.’’
‘‘ठीक है, बच्चों के साथ हम भी खा लेंगे, उन में और हम में कोई फर्क है क्या?’’ वह इस तरह ठहाका लगा कर हंसे मानो अभीअभी चुटकुला सुनाया हो.
मैं ने हार कर कड़ाही चढ़ाई और ब्रैडरोल तलने लगी. तब तक वे अखिलेश के कमरे में जा चुके थे. ‘‘अच्छा, तो साहबजादे पढ़ाई कर रहे हैं. कीजिएकीजिए, हम बिलकुल बाधा नहीं डालेंगे,’’ कहते हुए वे बाहर निकल आए और जोरजोर से कोई लोकगीत की धुन दोहराने लगे.
अखिलेश का उन की बातों से बचने का यह आजमाया हुआ सफल नुस्खा था. इस बार भी वह कामयाब रहा. मैं ने ब्रैडरोल की प्लेट उन्हें पकड़ाई और उन की बातें सुनने के लिए अपनेआप को मानसिक रूप से तैयार कर लिया. अपने गांव, खेतखलिहान, पगडंडियां, वही घिसापिटा रिकौर्ड, अखिलेश तो सुनसुन कर तंग आ चुका था.
‘‘इतनी याद आती है अपने गांव की तो यहां क्यों नौकरी कर रहे हैं? जाते क्यों नहीं अपने गांव?’’ वह अकसर खीज कर कहता.
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‘‘मजबूरियां थीं, बेटे. खेत, घर कुछ रहा नहीं, सो यहां आ गए. आगे बढ़ने की लगन थी, दिमाग भी ठीकठाक था सो छात्रवृत्ति के बल पर इंजीनियर बन गए.’’
‘‘दिमाग अच्छा था, यह बताना पड़ रहा है…’’ अखिलेश जबतब उन का मजाक उड़ाता.
उन की बातें अकेले सुनते हुए मुझे अखिलेश की टिप्पणियां याद कर के बेहद हंसी आ रही थी और वे शायद अपने पिता की मृत्यु का 10 बार सुनाया हुआ प्रसंग फिर सुना रहे थे. उन्हें मेरी बेवक्त की हंसी बेहद खली.
मुझे इस बात का ध्यान आया तो मैं ने फौरन होंठ सिकोड़ लिए.
‘‘भाभीजी, भैया तो आए नहीं. मैं सोच रहा था, उन के साथ बैठ कर चाय पीएंगे,’’ उन्होंने चायपान की भूमिका बांधी. अत: मैं चुपचाप जा कर चाय चढ़ा आई.
एकडेढ़ घंटा दिमाग चाट कर जब वे गए, सिर बुरी तरह चकरा रहा था. अखिलेश के कमरे में जा कर देखा था, हथेली पर होंठ टिकाए बैठा था.
‘‘मां, रामलाल चाचा के घर आने का एक फायदा तो है,’’ वह दार्शनिक मुद्रा बना कर बोला, ‘‘मेरा एक कठिन पाठ आज पूरा हो गया.’’
मेरा दिमाग उन की बातों से इतना बोझिल हो चुका था कि उस की इस बात पर कोई प्रतिक्रिया व्यक्त करने की भी क्षमता मुझ में नहीं बची थी.
जब पति विवेक घर आए तो मेरे क्रोध का ज्वालामुखी फूट पड़ा, ‘‘कैसेकैसे लोगों के साथ दोस्ती कर रखी है आप ने. पूरी कालोनी में जिसे कोई पूछता तक नहीं था, यहां आएदिन मुंह उठाए चला आता है.’’
‘‘रामलाल आया था क्या?’’ वे कुछ अपराधी स्वर में बोले.
‘‘और नहीं तो क्या. डेढ़ घंटे से बैठे थे. यह नहीं कि आप घर पर नहीं हैं तो चलते बनें. चायनाश्ता जब हुआ, तब गए.’’
‘‘कुछ दिनों की बात है, उस के बीवीबच्चे आ जाएंगे तो अपनेआप आनाजाना कम हो जाएगा. अकेला आदमी है, कर भी लिया चायनाश्ता तो कौन सा आसमान टूट पड़ा,’’ इन्होंने लापरवाही से कहा.
‘हुंह, खुद झेलते तो पता चलता,’ मैं ने बड़बड़ाते हुए गैस चालू की.
‘‘चाचा चले गए?’’ सुरभि ने बाहर से आते ही पूछा, ‘‘मैं तो घबरा ही गई थी कि मेरे घर लौटने तक टलते भी हैं या नहीं. सचमुच बड़े ‘बोर’ हैं.’’
11 साल की सुरभि के शब्दकोश में जब से यह शब्द आया था, वह जबतब इस का प्रयोग करती. रामलालजी वाकई इस शब्द के साथ न्याय भी करते थे. 4-6 दिनों में एक चक्कर तो जरूर लगता था उन का. भोपाल से स्थानांतरित हो कर नएनए आए थे, तब अखिलेश और सुरभि भी उन के पास बैठ जाते. लेकिन जल्दी ही उन की घिसीपिटी बातों से ऊब गए. उन का परिवार अभी भोपाल में ही था और शैक्षणिक सत्र पूरा होने पर ही वे लोग आने वाले थे. तब तक ये महाशय हमारे ही जिम्मे थे.
मेरी पड़ोसी मधुलिका का भी जवाब नहीं. जब भी आएगी, बड़ी मासूमियत से पूछेगी, ‘‘क्या सुजाता, आज रामलालजी नहीं आए?’’ जैसे कि रोज आते हों.
फिर कहेगी, ‘‘आप भी खूब हैं. न जाने कैसे सह लेती हैं ऐसेवैसे लोगों को. निपट देहाती लगते हैं और विवेक साहब को ‘भैया’ कहते हैं. सुन कर ही हमें तो बड़ा अटपटा लगता है.’’
एक रोज रामलालजी आए. आते ही उन्होंने फिर चायपान की भूमिका बांधी, ‘‘भाभीजी, ठंड बहुत है.’’
‘‘हां, सो तो है,’’ मैं ने उन की बात सुन कर शुष्क स्वर में कहा.
‘‘जरा एक कप चाय पिलाइए.’’
मैं ने लाचारी दिखाते हुए कहा, ‘‘भाई साहब, दूध तो खत्म हो चुका है.’’
‘‘अरे,’’ वह आननफानन रसोई तक पहुंच गए, ‘‘दूध तो है भाभीजी. लगता है, आप को ध्यान नहीं रहा.’’
लेकिन आज मैं भी जिद पर अड़ी थी, ‘‘दूध तो है पर अभी बच्चों ने नहीं पीया.’’
‘‘बच्चों ने नहीं पीया?’’
‘‘तब तो हम चाय नहीं पीएंगे. बच्चों को दूध पिलाना पहले जरूरी है. हमें ही लीजिए, बचपन में तो खूब दूध पीया, बाद में कुछ रहा नहीं…’’ वे अपनी रौ में बहने लगे.
‘‘भाई साहब, मुझे काम से बाहर जाना है,’’ मैं ने ताला हाथ में उठाते हुए कहा.
‘‘अच्छी बात,’’ उन का मुंह उतर आया और वह चल पड़े.
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Pahchan Hindi Kahaniपहचान-भाग 2: रामलाल चाचा के घर आने से बच्चे क्यों उत्साहित थे? |
पहचान-भाग 2: रामलाल चाचा के घर आने से बच्चे क्यों उत्साहित थे?
रामलालजी के जाने के बाद मुझे बच्चों का खयाल आया. हड़बड़ाहट में मुझे ध्यान ही नहीं रहा. अब तक तो दोनों घर आ चुके होंगे.
इस घटना के बाद मैं ने उन के प्रति अपना यही रुख बनाए रखा. किसी नापसंद व्यक्ति के साथ जब हम पहली बार दुर्व्यवहार करते हैं, हमारा अंतर्मन हमें कचोटता है पर बाद में वही दुर्व्यवहार हमारी आदत बन जाता है. जो व्यक्ति अब तक मजाक उड़ाने लायक लगता था, वह अब घृणा का पात्र बन गया.
उन का हाथ बांध कर खड़े होना, पान की पीक से हरदम सने हुए दांत, तेल चुपड़े बाल, उन की हर बात ही मुझे काट खाने दौड़ती. वे भी देर से ही सही पर मेरी बेरुखी ताड़ गए. अब उन का घर पर आना काफी कम हो गया. विवेक जब घर पर होते, तभी वे आते और मुझ से नाश्ते के अलावा कोई बात न करते. मैं ने राहत की सांस ली. वक्तबेवक्त का चायनाश्ता सब कुछ बंद हो गया.
उस रोज घंटी बजने पर जैसे ही मैं ने दरवाजा खोला, सामने रामलालजी को खड़ा पाया. पसीने से तर उन की काया देख कर मुझे सदा की भांति नफरत हो आई.
‘‘विवेक घर पर नहीं हैं,’’ कहते हुए मैं दरवाजा बंद करने को हुई. उन्होंने इशारे से मुझे रोकना चाहा. मैं ने मन ही मन उन्हें कोसते हुए पूरा दरवाजा खोल दिया.
‘‘भाभीजी, बच्चे कहां हैं?’’
‘‘स्कूल गए हैं, और कहां जाएंगे इस वक्त?’’ मैं ने लापरवाही से कहा.
उन्होंने एक गहरी सांस ली और बोले, ‘‘आप इसी वक्त मेरे साथ चलिए, भैया दुर्घटनाग्रस्त हो गए हैं.’’
सुनते ही मुझे गश सा आ गया. वे संभाल कर मुझे अंदर ले आए.
‘‘भाभीजी, आप घबराइए नहीं, उन्हें ज्यादा चोट नहीं आई है,’’ उन्होंने कहा पर मुझे उन की बात पर विश्वास नहीं हो रहा था. ऐसे समय तो लोग झूठ भी बोलते हैं. मौत की खबर तक छिपा जाते हैं.
लड़खड़ाते कदमों से मैं किसी तरह अस्पताल जाने के लिए निकली. रामलाल जी ने ही ताला लगाया. मुझे तो किसी चीज का होश ही नहीं था.
‘‘एक बच्चा दौड़ता हुआ भैया के स्कूटर के सामने आ गया. उसे वे बचाने लगे तो स्कूटर का संतुलन बिगड़ गया तो खुद ही गिर पड़े. स्कूटर भी उन्हीं पर गिरा. उठ भी नहीं पा रहे थे,’’ रामलालजी स्कूटर से मुझे ले जाते हुए सारी घटना सुना रहे थे. मेरी आंखों में आंसुओं का सैलाब उमड़ता जा रहा था. हृदय में हड़कंप मचा था और सांसों में बवंडर.
‘‘10-15 मिनट से भैया वैसे ही पड़े रहे थे पर एक भी भले आदमी की इनसानियत नहीं जागी. वह तो गनीमत थी कि उसी वक्त मैं वहां से गुजरा…’’
मुझे उन के शब्द भी ठीक से सुनाई नहीं दे रहे थे. बारबार दिल यही मना रहा था कि वे ठीक हों.
‘‘भाभीजी, आप भैया के सामने खुद को संभाले रहिएगा. आप तो जानती हैं कि वे अस्पताल के नाम से ही घबरा उठते हैं,’’ उन्होंने समझाते हुए मुझ से कहा पर दूर से ही विवेक को बिस्तर पर पड़े देखा तो रुलाई फूट पड़ी.
‘‘आप इन की पत्नी हैं?’’ डाक्टर पूछ रहा था, ‘‘देखिए, घबराने की कोई बात नहीं है. इन के पैर में फ्रैक्चर हो गया है, और अंदरूनी चोट नहीं है.’’
डाक्टर के शब्द मुझे तसल्लीबख्श लग रहे थे. मन में अब तक उठती हुई भयानक आशंकाओं पर विराम लग गया था. डाक्टर ने रामलालजी को दवाओं की परची दे दी.
‘‘सुजाता,’’ इन की आंखें खुलीं.
‘‘मैं यहीं हूं, आप के पास,’’ मैं ने इन के कंधे को हौले से दबाया.
ये कराह उठे, ‘‘सुजाता, बहुत तकलीफ हो रही है.’’
‘‘सब ठीक हो जाएगा. आप घबराइए मत,’’ मैं ने कांपती हुई आवाज में कहा और भागीभागी नर्स के पास गई. उस ने इन्हें दर्द से राहत दिलाने के लिए इंजैक्शन लगाया. थोड़ी ही देर में इन की आंख लग गई.
‘‘भाभीजी, ये दवाएं ले आया हूं,’’ रामलालजी न जाने कब आए थे, ‘‘ये कुछ फल वगैरह भी रखे हैं. जब डाक्टर कहें, भैया को दे दीजिएगा,’’ वे कह रहे थे.
रामलालजी के जाने के बाद मुझे बच्चों का खयाल आया. हड़बड़ाहट में मुझे ध्यान ही नहीं रहा. अब तक तो दोनों घर आ चुके होंगे, ताला देख कर कहां जाएंगे, मुझे कुछ भी सूझ नहीं रहा था. फिर अचानक खयाल आया कि पड़ोस की मधुलिका के यहां फोन कर के उसे बच्चों के बारे में बताया जा सकता है.
मैं ने फोन कर के मधुलिका को वस्तुस्थिति से अवगत कराया.
‘‘ओह, यह तो बड़े अफसोस की बात है. भाई साहब दुर्घटनाग्रस्त हो गए. वैसे कोई ज्यादा चोट तो नहीं लगी?’’
‘‘पैर में फ्रैक्चर हो गया है.’’
‘‘बुरा हुआ,’’ वह बोली, ‘‘हमारी ओर से कोई मदद वगैरह तो नहीं चाहिए?’’
वह ‘नहीं’ शब्द पर जोर देती हुई बोली. उस का लहजा सुन कर मुझे रोना आने लगा.
‘‘जरा बच्चों को देखना था, वे आ जाएं तो…’’ मैं समझ नहीं पा रही थी कि उस से कैसे कहूं कि आज रात बच्चों को अपने घर रख ले.
‘‘आप फिक्र मत कीजिए, वह बेरुखी से बोली, ‘‘बच्चे आ जाएंगे तो मैं उन्हें बता दूंगी कि आप लोग नौरोजाबाद के अस्पताल में हैं,’’ कह कर उस ने फोन रख दिया.
मैं बोझिल कदमों से इन के बिस्तर तक आई. यों बच्चे बिलकुल छोटे तो नहीं थे पर अपनों की दुर्घटना की खबर तो अच्छेअच्छों के पैरों तले जमीन खिसका देती है. फिर ये तो अनुभवहीन बच्चे हैं. मधुलिका जैसी रोज घर आने वाली अंतरंग सहेली का यह व्यवहार है तो बाकियों से क्या उम्मीद की जाए.
तभी विचारों की धुंध छंट गई. सामने रामलालजी खड़े थे.
‘‘भाभीजी, आप के घर की चाबी मैं अखिलेश को स्कूल में ही दे आया हूं. उसे सबकुछ समझा दिया है कि वह सुरभि को इस बारे में अभी कुछ न बताए. वह मेरे ही साथ आना चाहता था पर मैं ने उसे बताया कि इस वक्त उस का सब से बड़ा काम सुरभि को बहलाए रखना है,’’ रामलालजी कह रहे थे.
मुझे याद आ रही थीं अखिलेश की टिप्पणियां, उस का रामलालजी का मजाक उड़ाना, उन के चलनेबोलने की नकल उतारना, सुरभि का उन्हें टाल कर बाहर खिसक जाना आदि.
‘‘भाईसाहब, आप ने तो मेरी बहुत बड़ी चिंता दूर कर दी. मैं बच्चों के ही विषय में सोच रही थी,’’ मैं ने कृतज्ञ स्वर में कहा तो वे बोले, ‘‘मुझे भी खासकर सुरभि की ही बड़ी चिंता थी. अब अखिलेश सब संभाल लेगा.’’
‘‘अब आप घर जा कर आराम कर लीजिए. रातभर भैया के पास मैं रहूंगा. मैं खाना बना कर आप के घर रख आया हूं.’’
मुझे एकएक कर के वे सारी घटनाएं याद हो आईं, जब कदमकदम पर मैं ने उन का अपमान किया था. खासकर वह घटना, जब उन के द्वारा चाय की फरमाइश किए जाने पर मैं ने दूध न होने का बहाना बनाया था. पश्चात्ताप से मेरा हृदय फट जाना चाहता था.
मुझे मौन देख कर वे सांत्वना भरे स्वर में बोले, ‘‘धीरज रखिए, भाभीजी, शुक्र है कि भैया सहीसलामत हैं.’’
घर आने पर देखा, सुरभि ने रोरो कर आसमान सिर पर उठा लिया है. अखिलेश से पता चला कि मधुलिका अपना फर्ज पूरा कर गई है. उस ने सुरभि को दुर्घटना की खबर सुना दी थी. मैं ने सुरभि को समझाबुझा कर संभाल लिया. अखिलेश खाना खा कर अस्पताल चला गया.
अगले दिन कालोनी में इस दुर्घटना की खबर फैल गई थी. मैं थर्मस में चायनाश्ता ले कर अस्पताल जाने के लिए तैयार खड़ी थी कि घर में भीड़ लग गई.
मैं ने वह अनदेखी घटना सब को बता दी.
‘‘ओह, बुरा हुआ, लोग देख कर नहीं चलते क्या?’’
‘‘ट्रैफिक के नियम तो यहां कोई जानता ही नहीं.’’
‘‘बच्चों को अपने साथ रखना चाहिए, न कि खुला छोड़ना चाहिए.’’
‘‘समय का कोई भरोसा नहीं.’’
चर्चा अपने पूरे रंग पर थी. एक विषय से दूसरा विषय निकलता जा रहा था. अस्पताल जाने की जल्दी थी पर कोई उठने का नाम भी तो ले. तभी रामलालजी ने आ कर मुझे इस विषम परिस्थिति से उबार लिया.
‘‘भाभीजी, चलिए, आप तैयार हैं न?’’ वे आते ही बोल पड़े.
‘‘जी, चलिए,’’ थैला संभालते हुए मैं उठ खड़ी हुई.
‘‘रामलालजी तो कर ही रहे हैं आप के लिए. फिर भी हमारे लायक कोई सेवा हो तो बताइएगा,’’ भीड़ में से कोई आवाज आई.
‘‘हांहां, जरूर बताइएगा,’’ 2-4 दबीदबी सी आवाजें आईं.
रामलालजी मुझे और सुरभि को स्कूटर पर बिठा कर अस्पताल ले गए.
शाम को कई परिचित पड़ोसी मित्र इन्हें देखने आए. ‘‘किसी चीज की जरूरत तो नहीं?’’ चलते समय हर कोई औपचारिकता जरूर निभाता और सोचती, कोई यह क्यों नहीं कहता, निसंकोच हो कर हमें काम बताएं. किसी चीज की आवश्यकता हो तो अवश्य बताएं.
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Pahchan Hindi Kahaniपहचान-भाग 3: रामलाल चाचा के घर आने से बच्चे क्यों उत्साहित थे? |
पहचान-भाग 3: रामलाल चाचा के घर आने से बच्चे क्यों उत्साहित थे?
रामलालजी अपने पुराने फौर्म में लौट आए. वही पुरानी घटनाएं, खेतखलिहान, जमीन, घर, गांव की बातें. पर आज उन का श्रोतावर्ग अपेक्षाकृत बड़ा था और बड़े ध्यान से उन की बातें सुन रहा था.
‘‘मगर सब की ‘नहीं’ ने हमारे मुंह पर ताला डाल दिया. रामलालजी को तो कुछ भी कहने की आवश्यकता नहीं पड़ती. वे चुस्ती से, मुस्तैदी से और स्वयं अपनी समझ से हमारी मदद कर रहे थे, जैसे सचमुच इन के छोटे भाई हों. अखिलेश के लाख कहने पर भी उन्होंने उसे एक भी दिन अस्पताल में नहीं रुकने दिया. वे कहते, ‘‘इस की परीक्षा है, बेकार पढ़ाई का नुकसान होगा.’’
एक रोज जब हमेशा की तरह वे इन के लिए फल वगैरह ले आए तब मैं ने उन से फलों के पैसों के बारे में पूछा. सुनते ही वे बिगड़ गए, ‘‘भाभीजी, मैं ने तो आप लोगों को कभी पराया नहीं समझा. आप इस तरह की बात कह कर मेरी भावना को चोट न पहुंचाएं.’’
उन की इस बात से स्वयं अपनी ही कही एक बात मुझे कचोटने लगी, ‘बड़ा चाचा बना फिरता है बच्चों का. इतनी बार हमारे यहां खाता है पर यह नहीं कि बच्चों के लिए ही कुछ लेता आए.’ आज वे जो कुछ हमारे लिए, बच्चों के लिए कर रहे थे, क्या किसी नजदीकी रिश्तेदार से कम था. आज के जमाने में तो रिश्तेदार तक मुंह फेर लेते हैं.
रामलालजी के जाने के बाद यह भावविभोर हो कर बोले, ‘‘कितना करता है हमारे लिए. यह नहीं होता तो न जाने हमारा क्या हाल होता. उस रोज तो शायद मैं अस्पताल भी नहीं पहुंच पाता.’’
मेरे पास तो रामलालजी के विषय में बात करने के लिए शब्द ही नहीं थे. मैं ने उन्हें क्या समझा था और क्या निकले वे. मुझे इस व्यक्ति से इस कदर नफरत हो गई थी कि अकसर ही इन से पूछती, ‘‘आप की कैसे इस निपट गंवार से दोस्ती हो गई?’’
‘‘क्योंकि मैं इसे पहचानता हूं न अच्छी तरह. इस के मन में न तो किसी के लिए ईर्ष्या है न बदले की भावना.’’
‘‘यों कहिए न कि उन में प्रतिस्पर्धा की भावना नहीं है, इसी कारण तो पिछले वर्ष तरक्की नहीं ले पाए.’’
‘‘प्रतिस्पर्धा की भावना नहीं है, यह बात नहीं है पर लक्ष्य को गलत ढंग से प्राप्त करने की कामना नहीं है,’’ ये कहते.
‘‘आजकल ईमानदारी का ढोल पीटने से कुछ होता है भला. ये क्या जानें कि वरिष्ठों को कैसे प्रभावित किया जाता है, देहाती जो ठहरे.’’
‘‘सुजाता, मैं भी मध्यम वर्ग से आया हूं. इतना जरूर जानता हूं कि इंसानी जीवनमूल्य झूठी सफलताओं से बढ़ कर है.’’
इन की बात कितनी सही थी, इस बात का मुझे आज पता चला.
इन की हालत सुधरती जा रही थी. आखिर वह दिन भी आया जब इन्हें अस्पताल से छुट्टी दे दी गई. रामलालजी टैक्सी ले आए और हमसब इन्हें ले कर घर आ गए. घर आते वक्त मुझे लग रहा था, जैसे मैं एक लंबा सफर कर के आई हूं. इस अनुभव ने मुझे बहुत कुछ सीखनेसमझने का मौका दिया. सच कहा है कि इंसान की सही पहचान मुसीबत के समय होती है.
अभी डाक्टर ने इन्हें 15 दिन पूर्ण आराम करने की सलाह दी थी. अत: ये पूरे आराम के साथ घर में बिस्तर पर पड़े रहते थे. उस रोज रामलालजी दफ्तर से सीधे घर आए.
‘‘कैसे हैं भैया अब?’’ उन्होंने हमेशा की तरह ठेठ ग्रामीण लहजे में पूछा.
‘‘ठीक हैं, आइए,’’ मैं ने उन का भरपूर स्वागत किया.
सुरभि बाहर खेलने जा रही थी. ‘‘अरे, रामलाल चाचा आए हैं, मैं थोड़ी देर बाद खेलने जाऊंगी,’’ वह बोली. अखिलेश कुछ पढ़ रहा था. वह भी बैठक में आ गया.
रामलालजी अपने पुराने फौर्म में लौट आए. वही पुरानी घटनाएं, खेतखलिहान, जमीन, घर, गांव की बातें. पर आज उन का श्रोतावर्ग अपेक्षाकृत बड़ा था और बड़े ध्यान से उन की बातें सुन रहा था.
‘इतने संघर्षों को कैसे पार किया होगा इन्होंने अकेले ही? कैसे हर मोरचे पर खुद ही डटे होंगे? इन के चाचाओं ने इन के पिता की मृत्यु के बाद सारी जायदाद हड़प ली तो सड़क पर ही आ खड़े हुए थे बेचारे. उस सड़क से वापस घर तक जाने में कितना फासला तय करना पड़ा होगा.’ मेरे मन में उन के प्रति श्रद्धाभाव जाग उठा.
उन के सारे अनुभवों को मैं आज बिलकुल नई दृष्टि से देख रही थी. इतनी तकलीफें अकेले उठाईं. इसलिए वे सारी घटनाएं उन्हें हमेशा के लिए याद हो गईं. बहुत दिनों से रुका हुआ पानी जिस तरह निकलने का मार्ग पाते ही पूरे वेग से बह निकलता है, उसी तरह उन की सारी व्यथा इन से मिल कर और अपनत्व पा कर शब्दरूप में बह निकली. क्या इन के अनुभव हम सब के लिए अनमोल थाती नहीं थे?
‘‘चाचा, आप ने बेहद बहादुरी से अपने जीवन की यह लड़ाई खुद लड़ी. वक्त की नजाकत को समझते हुए आप ने अपनी शिक्षा भी पूरी की. मैं तो अभी भी डांटडपट के बगैर पढ़लिख नहीं पाता,’’ अखिलेश पूरे उत्साह व गंभीरता से कह रहा था.
‘‘हालात सब कुछ सिखा देते हैं, बेटे.’’
ये अर्थपूर्ण दृष्टि से मुझे देख रहे थे. वातावरण कुछ बोझिल हो गया था. हमारी चुप्पी से वे समझे कि हम लोग उन की बातों से बोर हो रहे हैं. अत: उठने का उपक्रम करने लगे कि हठात मेरे मुंह से निकल पड़ा, ‘‘अभी बैठिए न भाई साहब, मैं आप के लिए एक गिलास मलाईदार चाय बना कर लाती हूं.’’