आज फिर मुझ से कहा दरिया ने
क्या इरादा है बहा ले जाऊं
क्या इरादा है बहा ले जाऊं
मोहम्मद अल्वी की शायरी
घर में सामां तो हो दिलचस्पी का
हादसा कोई उठा ले जाऊं
इक दिया देर से जलता होगा
साथ थोड़ी सी हवा ले जाऊं
लम्बी सड़क पे दूर तलक कोई भी न था
पलकें झपक रहा था दरीचा खुला हुआ
मोहम्मद अल्वी शेर
तिरा न मिलना अजब गुल खिला गया अब के
तिरे ही जैसा कोई दूसरा मिला मुझ को
ज़मीं छोड़ने का अनोखा मज़ा
कबूतर की ऊंची उड़ानों में था
सदियों से किनारे पे खड़ा सूख रहा है
इस शहर को दरिया में गिरा देना चाहिए
तिरा न मिलना अजब गुल खिला गया अब के
तिरे ही जैसा कोई दूसरा मिला मुझ को
ज़मीं छोड़ने का अनोखा मज़ा
कबूतर की ऊंची उड़ानों में था
सदियों से किनारे पे खड़ा सूख रहा है
इस शहर को दरिया में गिरा देना चाहिए
mohammad alvi shayari
किसी से कोई तअल्लुक़ रहा न हो जैसे
कुछ इस तरह से गुज़रते हुए ज़माने थे
कितना मुश्किल है ज़िंदगी करना
और न सोचो तो कितना आसां है
हर वक़्त खिलते फूल की जानिब तका न कर
मुरझा के पत्तियों को बिखरते हुए भी देख
किसी से कोई तअल्लुक़ रहा न हो जैसे
कुछ इस तरह से गुज़रते हुए ज़माने थे
कितना मुश्किल है ज़िंदगी करना
और न सोचो तो कितना आसां है
हर वक़्त खिलते फूल की जानिब तका न कर
मुरझा के पत्तियों को बिखरते हुए भी देख