हां वह कैसे दिन थे ,
हां वह कैसी शाम ,
बस तुम्हारी याद थी ,
और हाथों में थी जाम ।
सिसक सिसक के थक गए ,
ठिठुर ठिठुर के थक गए ,
तन्हाई के आलम को ,
अब सहते सहते थक गए ।
कसूर न कोई मेरा था ,
कहूं तो खुद से क्या कहूं ।
अल्फाज़ जो मिलते नहीं ,
किसी को क्या बयां करूं ।
ये मुद्दतों से जानता था ,
फिर भी मैं उड़ा रहा ।
ना तुझको कोई चाह थी ,
फिर भी मैं जुड़ा रहा ।
औकात अपनी भुला था ,
पाने की तुझको चाह में ।
शमा कभी क्या आती है ?
परवानों की पनाह में !
गुजर रहा जो शख्स है ,
मुझ में से ये अभी - अभी ।
ना और कोई समझ इसे ,
आशिक वो तेरा था कभी ।
यह जो रंजो ग़म कि स्याही है ,
बड़ी मुद्दतों से आई है ।
फितूर इश्क का उतर गया ,
अब जुनून शायरी ही है ।
अब खुशनुमा सुबह हो या ,
जाफरानी शाम ।
सब कुछ है फीका फीका सा ,
जो हो ना तेरा नाम ।