" जिएँगे इस तरह "
हमने ऐसा ही चाहा था
कि हम जिएँगे अपनी तरह से
और कभी नहीं कहेंगे मजबूरी थी
हम रहेंगे गौरैयों की तरह अलमस्त
अपने छोटे - से घर को
कभी ईंट - पत्थरों का नहीं मानेंगे
हम रहेंगे बीज की तरह
अपने भीतर रचने का उत्सव
लिए निदाघ में तपेंगे ....
ठिठुरेंगे पूस में अंधड़
हमें उड़ा ले जाएँगे
सुदूर अनजानी जगहों
पर जहाँ भी गिरेंगे
वहीं उसी मिट्टी की मधुरिमा में
खोलेंगे आँखें हारें या जीतें -
हम मुक़ाबला करेंगे समय के थपेड़ों का
' उत्पल बैनर्जी '
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