नखुलने वाली आंख में झांकते हुए और खुली आंख में समाते हुए श्रीमती जी ने पूछा ' क्या किया था इस आंख से ? खुलती क्यों नहीं ? किससे लड़ी थी यह मुई ?
हरीश नवल ho में बड़ा फख्र था कि हम कभी भी अस्पताल में नहीं रहे । एक हीन - सी भावना यह भी आती थी कि हमारे मित्र वहां डेरा डाले रहते हैं , मिलने पर अस्पताल - चर्चा जोरों से करते हैं , डॉक्टरों , नौं तथा अटेंडेंटों के गजब किस्से सुनाते रहते हैं , अपनी बीमारियों का रोचक वर्णन करते हैं और हम अनजान से बस सुनते रहते हैं , सुना नहीं पाते । जल्दी ही हमें भी मौका मिला । हुआ यूं कि उस दिन सुबह उठे तो आधा ही जाग पाए ।
एक आंख खुल गई , परंतु दूजी खुलने का नाम नहीं ले रही थी । हमने विपत्ति समझकर हमेशा की तरह श्रीमती जी को पुकारा , वह वैसे ही चली आईं जैसे गज के पुकारने पर भगवान विष्णु चले आए थे । न खुलने वाली आंख में झांकते हुए और खुली आंख में समाते हुए श्रीमती जी ने पूछा- क्या किया था इस आंख से ? खुलती क्यों नहीं ? किससे लड़ी थी यह मुई ? इतने सीधे सरल प्रश्न सुनकर आंख के साथ - साथ हमारी जुबान भी बंद हो गई । हमें याद आया कि बस देर रात तक टीवी देखा था और एक मच्छर शरणार्थी की भांति इस आंख में घुसा जरूर था पर हमने पलकों के धक्के देकर उसे निकाल बाहर कर दिया था ।
सरकारी बड़े अस्पताल में आंख का चेक - अप करते डॉक्टर ने आधा घंटा बिठाने के बाद कहा , मामला गड़बड़ है , नर्स से दवाई डलवाकर प्रॉपर चेक - अप करवाओ । नर्स ने पांच - पांच मिनट के अंतराल से अनेक बार क्षतिग्रस्त आंख में नींबू सा निचोड़ा । डेढ़ घंटे बाद हम टेबल पर थे और तीन - तीन डॉक्टर सिर पर रोशनी वाली टोपियां लगाए बारी - बारी से आंख देख रहे थे । बड़े स्पेशलिस्ट ने आंख से कुश्ती लड़ने के बाद बताया , रेटिना डिटैच्ड हो गया है । आपरेशन करना होगा । हम घर लौट आए और तैयारी में जुट गए । एक हफ्ते बाद हम वहां पहुच गए । हमने खुद ही ठाठ से अपना बिस्तर सेट किया । श्रीमती जी मौसमी का जूस निकालने में जुट गईं । डॉक्टरों तथा सीख रहे मेडिकल विद्यार्थियों की टीम अपने निर्धारित समय पर आई और हमारी आंख पर पिल पड़ी । रात को यूनिट डॉक्टर को हम हमने आंख दिखाई । उसने कहा , " आज बुधवार है ।
ऑपरेशन मंगल को ही होगा , तैयारी के लिए दो - एक दिन बहुत होते हैं । " हम छुट्टी काटकर सोमवार प्रातः ठीक समय पर हाजिर हो गए । मंगलवार की प्रातः छह बजे ही हमें कैदियों जैसे शानदार कपड़े पहना दिए गए । हम ऑपरेशन थिएटर के भीतर थे । साढ़े नौ बजे बेहोशी का डॉक्टर आया और हमारे होश गंवा कर चला गया । जब होश आया , हम अभी थिएटर के भीतर थे । हम प्रसन्न कि चलो ऑपरेशन निबट गया पर जब हमारे होश ठिकाने तब आए , जब हमें बताया गया कि ऑपरेशन हो नहीं सका , क्योंकि बड़े डॉक्टर साहब आ नहीं सके । प्राइवेट वार्ड में शिफ्ट कर दिए गए ।
होश में आए तो सचमुच ऑपरेशन हो चुका था । होश तो तब उड़े जब छह दिन प्राइवेट में रहने के बाद बिल में तीन शून्य और लगा दिए गए । डॉक्टर मित्र को खोजा । पता लगा कि वह अस्पताल से कमीशन लेता है । बात यहां तक भी रहती तो भी गनीमत थी , परंतु पट्टी हटने पर मालूम हुआ कि आंख का परदा जुड़ा ही नहीं । .