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Hindi Family Kahani Bina Maan Ki Betiyan Part 1-2 : बिन मां की बेटियां

बिन मां की बेटियां इशिता के बगल में अमरनाथजी बैठे उन की बात सुन रहे थे. वे कुछ नहीं बोले. उन्हें रजत से इस से ज्यादा उम्मीद न थी.


बिन मां की बेटियां इशिता के बगल में अमरनाथजी बैठे उन की बात सुन रहे थे. वे कुछ नहीं बोले. उन्हें रजत से इस से ज्यादा उम्मीद न थी.
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राइटर- डा. कुसुम रानी नैथानी

सुबहसवेरे इशिता का फोन देख कर अनमने भाव से रजत ने काल रिसीव की.

“हैलो पापा, मैं इशिता बोल रही हूं. आज से ठीक 10 दिन बाद मैं कोर्ट मैरिज कर रही हूं. हो सके तो आप आशीर्वाद देने आ जाएं.”

उस की बात सुन कर रजत ने पूछा, “यह अच्छी बात है कि तुम अपना घर बसाने जा रही हो. परंतु लड़का क्या करता है?”

“अशरफ और मैं एक ही विभाग में समीक्षा अधिकारी हैं.“

”क्या तुम गैरधर्म में शादी कर रही हो?”

“जी. अशरफ बहुत अच्छा लड़का है. आप को उस से मिल कर अच्छा लगेगा.”

“उन लोगों से इस से ज्यादा उम्मीद भी क्या की जा सकती थी?” रजत गुस्से से बोले.

“इस रिश्ते से घर पर सब खुश हैं. आप की खुशी का मुझ पर ज्यादा असर नहीं पड़ता. सिर्फ बताने के लिए

मैं ने आप को फोन किया है.”

“उन के सिर से तो बहुत बड़ा बोझ उतर गया होगा.”

“मैं और दी उन के लिए नहीं आप के लिए बोझ थीं. उन्होंने हमेशा हम दोनों बहनों को पलकों पर बिठा कर रखा,” इतना कह कर इशिता ने फोन रख दिया.

रजत की बात सुन कर प्रज्ञा बौखला गई और बोली, “इन के नानानानी ने हमें कहीं का नहीं छोड़ा. हमारी पगड़ी उछालने का मौका मिल गया उन्हें. बिरादरी में कितनी बदनामी होगी हमारी? तुम उसे रोकते क्यों नहीं हो?”

“मेरे रोकने से वह नहीं रुकेगी. यह बात तुम भी समझती हो और मैं भी,” इतना कह कर वे बाहर चले गए.

रजत का मूड बहुत खराब था, लेकिन बात उन के हाथ से निकल चुकी थी.

इशिता के बगल में अमरनाथजी बैठे उन की बात सुन रहे थे. वे कुछ नहीं बोले. उन्हें रजत से इस से ज्यादा उम्मीद न थी. तभी रजत का फोन उन के मोबाइल पर आ गया. वह बोला, ”आखिर आप ने हम से इतने सालों का बदला ले ही लिया.”


“किस बात का बदला?”

“सिर से बोझ उतारने का बदला. आप को लगता है कि मैं ने अपनी बेटियों की जिम्मेदारी नहीं उठाई. इस घर से आप उन्हें ले गए थे, मैं ने उन्हें नहीं सौंपा था. आप ने उन्हें ऐसी शिक्षा दी कि उन्होंने बिरादरी में मेरी पर नाक कटा दी.”

“यह तुम्हारी सोच है, हमारी नहीं. हम ने इन्हें पढ़ालिखा कर इस काबिल बनाया है कि वह अपने निर्णय खुद ले सकें. अशरफ पढ़ालिखा  और समझदार है. सब से बड़ी बात यह कि वह इशिता को खुश रखेगा. इस से ज्यादा हमें कुछ नहीं चाहिए,” इतना कह कर अमरनाथजी ने फोन रख दिया.

रजत की बात सुन कर वे विचलित हो गए.

इतने बरसों में आज तक उन्होंने त्रिशाला के जाने के बाद अपनी पोतियों के लिए किया ही क्या था?

अपनी बेटी त्रिशाला को याद कर उन की आंखें भर आईं और वे अतीत में लौटने लगे.

अमरनाथ जमाने को देखते हुए बेटी की शादी जल्दी से जल्दी कर देना चाहते थे. त्रिशाला के  इंटर पास

करते ही अपनी बिरादरी में एक अच्छा लड़का देख कर अमरनाथजी ने तुरंत उस की शादी कर दी.

त्रिशाला पढ़ने में बहुत होशियार थी. उस का आगे पढ़ने का मन था, लेकिन बाबूजी की इच्छा के आगे उस की अपनी इच्छा गौण हो गई.

त्रिशाला के पति रजत एक कालेज में प्रवक्ता थे. वह शादी कर के ससुराल पहुंच गई. अमरनाथजी ने अपने सामर्थ्य से अधिक इस शादी में खर्चा किया था.

त्रिशाला की ससुराल में सबकुछ ठीकठाक चल रहा था. शादी के चार बरस के अंदर उस ने दो प्यारी

बेटियों को जन्म दिया था. रजत के घर वाले इतने संकुचित नहीं थे कि लड़की के होने पर शोक मनाते. उन्होंने खुश हो कर  बच्चों का स्वागत किया था. त्रिशाला अपनी बेटियों का बहुत खयाल रखती. देखते ही देखते वे दोनों पांच और तीन साल की हो गई थीं.


एक दिन अचानक सड़क पर दौड़ती हुई गाड़ी की टक्कर से त्रिशाला बुरी तरह से जख्मी हो गई और अस्पताल पहुंचतेपहुंचते उस ने दम तोड़ दिया.

इस अप्रत्याशित घटना से सभी बौखलाए हुए थे. कुछ ही पल में रजत और त्रिशाला की खुशियां उजड़ गईं. रजत का तो रोरो कर बुरा हाल था.

रजत की मां अपनी पोतियों का मुंह देख कर पछाड़ें खा रही थीं.

अब इन बच्चों को कौन संभालेगा. अमरनाथ को तो जैसे सांप सूंघ गया था. इस दिन की तो उन्होंने जीतेजी कभी कल्पना भी नहीं की थी.

यह सब सुन कर वे जड़वत हो गए थे. किसी तरह हिम्मत जुटा कर वे रमा के साथ  बेटी की ससुराल पहुंचे थे. कहने को बहुतकुछ था, लेकिन वहां  के हालात देख कर उन के मुंह से बोल तक न फूट सके. मन में जो कुछ भी था, वह आंखों के रास्ते बह रहा था. बच्चों को देख कर  रमा का कलेजा फटा रहा था. तीन साल की इशिता और पांच साल की शलाका को समझ नहीं आ रहा था कि उन की मम्मी कहां चली गई? बड़ा साहस बटोर कर वे बोले, “आप इजाजत दें, तो कुछ दिन के लिए हम इशिता और शलाका को यहां से अपने साथ ले जाते हैं.

“समधीजी उन के लिए यही ठीक रहेगा, नहीं तो यहां के माहौल को देख कर बेचारी सदमे में आ जाएगी.”

शाम को वे दोनों नानानानी के साथ अपने ननिहाल चली आई. नन्ही बच्चियों को अपने साथ ला कर

अमरनाथजी को थोड़ा  संतोष हुआ. उन्हें उन में अपनी त्रिशाला की झलक दिखाई देती. उन्हें कुछ

समझ नहीं आ रहा था.  शलाका स्कूल जाने लगी थी. अमरनाथजी ने उसे यहीं पास की एक स्कूल में

दाखिला दिला दिया.

त्रिशाला इतना बड़ा घाव दे कर चली गई थी जो भरा तो नहीं जा सकता था, लेकिन

समय ने उस घाव पर मरहम जरूर लगा दिया था. वे दोनों नानानानी के घर में खुश थी. वे कभी अपनी मम्मी को याद करती प्रांजलि उन्हें बातों से बहला देती. वह इशिता और शलाका को बहुत प्यार करती थी. उस के साथ रह कर उन्हें मम्मी की याद कम ही सताती.


महीने गुजर रहे थे. रजत की मां नई बहू खोजने लगी थी. उन से भी अपने बेटे का दुख देखा नहीं जा रहा था.

जल्दी ही उन्होंने साधारण घर की प्रज्ञा से सादे ढंग से रजत की दूसरी शादी करा दी और वह उन के घर की बहू बन कर आ गई.

अमरनाथजी ने जब यह खबर सुनी तो उन्हें बुरा तो लगा, पर फिर दिल पर पत्थर रख कर उन्होंने परिस्थितियों को स्वीकार कर लिया. रजत की अभी उम्र क्या थी. वह भी जानते थे अकेले मर्द के लिए जिंदगी काटना इतना आसान नहीं है और फिर उस पर दो बच्चियों की जिम्मेदारी भी तो थी.

शादी के एक महीने बाद रजत अपनी बेटियों से मिलने आए थे. बाबूजी ने ही पूछा, “प्रज्ञा कैसी है? उसे साथ नहीं लाए. ऐसे माहौल में मुझे उसे यहां लाना उचित नहीं लगा. बाबूजी फिर कभी ले आऊंगा.”

“तुम ठीक कहते हो बेटा. जब मैं बच्चों को छोड़ने आऊंगा, तब उस से मुलाकात भी कर लूंगा.

“बाबूजी एक बात कहनी थी…”

“कहो बेटा.”

“मैं चाहता हूं कि इशिता और शलाका अभी कुछ समय तक आप ही के पास रहे. प्रज्ञा अभी परिपक्व नहीं है. पहले मां के साथ घुलमिल ले. उस के बाद मैं बच्चों को आ कर यहां से ले जाऊंगा.”

“जैसी तुम्हारी मरजी. इशिता और शलाका तो हमारे पास तुम्हारी अमानत हैं. जितनी जल्दी अपनी नई मम्मी के साथ घुलमिल जाए उतना अच्छा है.

“आप ठीक कहते हैं,” रजत बोला. थोड़ी देर बातचीत कर रजत उसी दिन घर वापस लौट गया था. उस के बाद वहां कई महीनों तक वह नहीं आया. बस फोन से ही खबर लेता रहता और निश्चित समय पर उन के लिए रुपए भेज देता.

अमरनाथजी के लाख मना करने पर रजत नहीं माना, तो उन्होंने इशिता और

शलाका के नाम खाता खुलवा कर रजत के भेजे रुपए उसमें डाल दिए.


एक दिन अमरनाथजी ने ही फोन से पूछ लिया था, ‘रजत बेटा, तुम बच्चों को लेने कब आ रहे हो?”

“बाबूजी, प्रज्ञा के पांव भारी हैं. मुझे नहीं लगता कि ऐसी हालत में वह इशिता और शलाका के साथ अपना

खयाल रख पाएगी. सबकुछ ठीकठाक निबट जाए तो मैं आ कर उन्हें ले जाऊंगा.

शादी के सालभर के अंदर ही रजत के घर बेटा पैदा हुआ था. इशिता और शलाका ने सुना तो वह भी बहुत खुश हुई. रमा ने बताया था, “तुम्हारा भाई हुआ है.”

“सच नानी, हम उसे देखने कब जाएंगे?” शलाका बोली.

“अभी शिवांश बहुत छोटा है. कुछ दिन बाद उसे देखने चलेंगे,” रमा बोली, “उसे खुद भी छोटे बच्चे की

जिम्मेदारी के साथ इशिता और शलाका की जिम्मेदारी उस पर डालना अच्छा नहीं लग रहा था.”

अमरनाथजी बोले, “चलो, अच्छा हुआ. रजत का परिवार पूरा हो गया. जब छोटा सालभर का हो जाएगा, तो इन दोनों को भी

उन्हें सौंप कर हम अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो जाएंगे.”

छ: महीने और बीत गए.;अमरनाथजी रजत की राह देखते रहे, लेकिन हर बार कोई न कोई बहाना बना कर वह टाल देता. ऐसे ही दो साल और गुजर जाए.

एक दिन रमा बोली, “मुझे नहीं लगता कि रजत इशिता और शलाका को अपने साथ रखना चाहता है. तुम्हें ही उसे सख्ती से बोलना पड़ेगा, वरना वह तो इस बात को टालता चला जा रहा है. दूसरी शादी उस ने बेटियों के लिए की थी, तो फिर उन्हें अपने साथ ले जाने में देरी क्यों कर रहा है?” अमरनाथजी को भी पत्नी की बात सही लगी थी.

उन्होंने रजत को फोन किया और बोला, “बेटा, अपनी अमानत जितनी जल्दी हो सके यहां से ले जाओ. अब तो प्रज्ञा भी उस घर में ठीक से एडजस्ट हो गई है और तुम्हारा बेटा भी दो साल का हो गया है .अब तो इन  इशिता और शलाका से प्रज्ञा को मदद ही मिलेगी.”


रजत अब बच्चों को ले जाने में आनाकानी न कर सका . मजबूरी में ही सही, उसे इशिता और शलाका को

लेने आना पड़ा. भरे दिल  से अमरनाथजी और रमा ने उन्हें विदा दी. प्रांजलि को भी उन के जाने का बहुत

बुरा लग रहा था, पर मजबूरी थी उन्हें विदा करते हुए अमरनाथजी बोले,

“त्रिशाला के जाने के बाद हम ने इशिता और शलाका की परवरिश में कोई कसर नहीं छोड़ी. तुम तो उस के

पिता हो. मुझे पूरी उम्मीद है कि तुम उन्हें बहुत अच्छे ढंग से रखोगे.”

“बाबूजी आप निश्चिंत रहें. आप को शिकायत का कोई मौका नहीं मिलेगा.”

प्रांजलि को उन के जाने का बहुत बुरा लग रहा था. इशिता और शलाका भी मौसी से अलग नहीं होना

चाहते थे, पर मजबूरी थी. रजत उन्हें अपने साथ ले कर  चले गए. बच्चों के जाते ही घर सूना हो गया था.

इशिता और शलाका के  आने से दादी तो खुश थीं, लेकिन प्रज्ञा को ऐसा लगा जैसे उन के आ जाने से रजत के प्यार में बेटे शिवांश के लिए कमी आ जाएगी.

घर आ कर दादी ने ही उन का परिचय नई मम्मी से कराया था. उन से मिल कर प्रज्ञा को ज्यादा खुशी नहीं

हुई थी और बच्चों को भी.

रात को वे दोनों दादी के पास आ कर सो गए थे.  प्रज्ञा ज्यादा समय अपने बेटे के साथ लगी रहती. दादीजी उन दोनों का खयाल रख रही थीं. चार दिन में ही उन की रंगत उतर गई थी. उन्हें यहां कोई पूछने वाला न था. रजत कुछ कहता तो प्रज्ञा तमक कर जवाब देती, “3-3 बच्चों को मैं एकसाथ नहीं संभाल सकती. अब ये बड़ी हो गई है. इन्हें अपना खयाल खुद रखना चाहिए.

रजत घर में किसी प्रकार का कोई विवाद नहीं चाहता था. उस ने प्रज्ञा को कुछ बोलना छोड़ दिया.

इशिता और शलाका जब से गए थे, अमरनाथजी को उन की कोई खबर नहीं मिली थी. एक दिन अमरनाथजी रमा के साथ बच्चों से मिलने उन के घर पहुंच गए.


नानानानी को देखते ही वे दोनों उन से लिपट गए. शलाका बोली, “हमें अपने साथ ले चलो नाना.”








बिन मां की बेटियां: भाग 2
पुरखों की काफी जमीनजायदाद थी.  पुश्तैनी घर पर किसी चीज का अभाव न था. शहर से लगे इस कसबे में सभी सुविधाएं थी.


बच्चों की हालत देख कर अमरनाथजी की भी आंखों में आंसू आ गए. लगता था, कई दिनों से वे नहाए नहीं और उन के कपड़े भी नहीं बदले गए थे.

दादी बोली, “मुझ से जितना बन पड़ता है मैं उतना ही कर सकती हूं. प्रज्ञा को तो शिवांश से ही फुरसत नहीं मिलती.”

“अगर आप बुरा न मानें, तो क्या हम इन्हें अपने साथ ले जाते हैं?”

“इस में बुरा मानने की क्या बात है? ये अच्छे से पल जाएं, मैं तो इतना ही चाहती हूं…

“अच्छा होता, आप रजत से भी पूछ लेते.”

“उस से क्या पूछना है? वह दो दिन के लिए बाहर गया हुआ है, फिर इन्हें छोड़ने कौन जाएगा? अच्छा होगा कि आप ही इन्हें अपने साथ ले जाएं.”

शिवांश की मुंहदिखाई कर वे इशिता और शलाका को ले कर लौट आए. प्रज्ञा ने उन्हें रुकने तक के लिए नहीं कहा और न ही खाने के लिए पूछा. बच्चों की हालत देख कर उन्हें बड़ा तरस आ रहा था. अनायास ही इस समय उन्हें त्रिशाला याद आ गई थी.

रजत के आ जाने पर मां ने उसे पूरी बात बता दी. रजत को शायद ऐसे ही मौके का इंतजार था. उसे भी अब अपनी बेटियां बोझ स्वरूप लगने लगी थीं. प्रज्ञा तो पहले ही उन्हें यहां रखने के खिलाफ थी. मौके का

फायदा उठाते हुए वह बोला, “वे अपनी मरजी से बच्चों को ले कर गए हैं तो आगे से मैं भी उन्हें लेने नहीं जाऊंगा. वे मेरे लौटने का

इंतजार कर सकते थे.”

प्रांजलि उन के लौट आने से बहुत खुश थी. उन के बिना उसे भी घर बड़ा सूनासूना लग रहा था. अमरनाथजी ने भी मन बना लिया था कि अब वे इशिता और शलाका को रजत के पास नहीं भेजेंगे. एक ही महीने में

फूल सी बच्चियों की क्या हालत हो गई थी? पढ़ाईलिखाई वे सब भूल गए थे. त्रिशाला अपनी दो


निशानियां इशिता और शलाका उन के पास छोड़ गई थी. अमरनाथजी ने फिर से उन का स्कूल में एडमिशन करा दिया और उन की पढ़ाई पर ध्यान देने लगे. वे दोनों पढ़ने में बहुत होशियार थीं. प्रांजलि भी

बड़ी लगन से अपनी पढ़ाई कर रही थी. वह बहुत अच्छे नंबरों से एमएससी की पढ़ाई पूरी कर अब बीएड

कर रही थी. मौसी के साथ बैठ कर वे दोनों भी पढ़ाई करने लगती.

अमरनाथजी खुद भी एक शिक्षक थे. उन्होंने हमेशा अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा दी. उन के पास अपने

पुरखों की काफी जमीनजायदाद थी.  पुश्तैनी घर पर किसी चीज का अभाव न था. शहर से लगे इस कसबे में सभी सुविधाएं थी. उस दिन के बाद से न तो रजत ने उन के लिए कोई खर्चा भेजा और न ही कभी उन से मिलने आए. बस

कभीकभार फोन पर जरूर बात कर लेता. बेटियों का पिता से रिश्ता अब इतना ही रह गया.

बीएड करने के सालभर बाद प्रांजलि की नौकरी लग गई थी. घर से चालीस किलोमीटर की दूरी पर उसका कालेज था. वह हर रोज इतनी दूर घर से आतीजाती. इशिता और शलाका के बगैर उसे भी कहीं अच्छा नहीं लगता था. वे दोनों अपनी हर छोटीबड़ी बात उसी के साथ बांटती. नौकरी लग जाने पर अब वह उन की हर ख्वाहिश पूरी कर देती. उन दोनों को भी मौसी से बहुत ज्यादा लगाव था.

अमरनाथजी ने अच्छा सा लड़का देख कर प्रांजलि का  रिश्ता पक्का कर दिया था. लड़का दिल्ली में नौकरी करता था. यह जानते हुए कि प्रांजलि नौकरी के लिए उत्तराखंड से बाहर कभी नहीं जा सकती, तब भी

लड़की वाले शादी के लिए राजी थे. जल्दी ही अमरनाथजी ने उस के हाथ पीले कर दिए. इस बार बेटी की शादी में उन में वह  उत्साह न था जितना त्रिशाला की शादी में था. शादी के बाद वह मात्र एक महीने ही ससुराल रही. उस के बाद नौकरी की वजह से वह वापस मायके चली गई.


शादी के दो साल बाद प्रांजलि ने आर्यन को जन्म दिया. उस की देखभाल के लिए घर पर रमा थी. प्रांजलि के पति विवेक ने कई बार चाहा कि वह नौकरी छोड़ कर उस के साथ दिल्ली आ जाए, लेकिन वह नौकरी छोड़ने के लिए तैयार नहीं हुई. उस की इच्छा का मान करते हुए उन्होंने कुछ बोलना ही छोड़ दिया.

रमा ने भी उसे समझाया,

“बेटी, ऐसे कब तक मायके में रहेगी? अपने लिए अलग घर की व्यवस्था कर लो, जिस से तुम्हारे ससुराल

वाले भी जब जी चाहे तुम्हारे पास आ सके.

“मां, मेरे बेटे आर्यन को वहां कौन देखेगा? मैं उसे अकेले नहीं संभाल सकती. यहां पर तुम भी हो और इशिता और शलाका भी हैं, जिन की मदद से वह अच्छे से पल रहा है.”

“प्रांजलि, तुझे अपने पति के बारे में भी तो सोचना चाहिए. तुम जहां नौकरी करती हो, वहां अलग घर की व्यवस्था कर लोगी तो आर्यन की देखभाल के लिए तुम्हारी सास भी आ जाएंगी और विवेक भी आता रहेगा. यहां आने में उन लोगों को झिझक होती होगी. तुम्हें यह बात समझनी चाहिए. हर कोई चाहता है कि उस की एक जमीजमाई गृहस्थी हो. उस का अपना परिवार उस के साथ हो.”

“मां, इन बातों को छोड़ो. मैं विवेक को अच्छी तरह से जानती हूं. वे वैसा कुछ नहीं सोचते जैसा तुम सोच

रही हो. उन्हें मुझ से कोई शिकायत नहीं और मुझे उन से. वह अपने मम्मीपापा के साथ खुश हैं और मैं

अपने मम्मीपापा के. आप को क्या परेशानी है? मुझे कोई परेशानी नहीं. बस, तुम्हें अपने अनुभव की बात बता रही हूं.”

प्रांजलि मां की कोई बात सुनने के लिए तैयार नहीं थी. मम्मी पापा और इशिता और शलाका के साथ उसे

इस घर में जितनी सुविधा थी उतनी उसे कहीं नहीं मिल सकती थी. यहां उस पर काम की कोई जिम्मेदारी


न थी. रमा भी अपनी ओर से ठीक कह रही थी. अब उन के अपने बेटे व्योमेश की भी गृहस्थी हो गई थी.

ऐसे में इन सब के साथ उस की पत्नी शिखा कभीकभी छोटी बातों को ले कर खीज जाती थी. इसी वजह से

रमा बेटी को समझाने की कोशिश कर रही थी, लेकिन वह समझने को राजी नहीं थी.

कुछ समय बाद शलाका ने एमए पास कर लिया था. रजत को बेटियों से कोई मतलब नहीं था. नाना

और मामा ने अच्छा सा घर देख कर उस की शादी पक्की कर दी.




 

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