Hindi Kahani Zindagi Ki Rah 'जिंदगी की राह' भाग 1 To 3 : दीप्ति का चेहरा क्यों बदसूरत हो गया था - HindiShayariH
Hindi Kahani 'जिंदगी की राह' सोने से पहले मैं कपड़े बदलने जा रही थी, तभी रात के सन्नाटे को चीरती हुई, बाहर की घंटी बजी. पतिदेव बिस्तर में लेट चुके थे.
'जिंदगी की राह' भाग 1 |
hindi kahani'जिंदगी की राह' भाग 1
ब्रेन ट्यूमर की वजह से दीप्ति का चेहरा बदसूरत हो गया. इस दुख में उस ने रंजना और दीपक को भी शामिल करना उचित नहीं समझा और बिना बताए दोनों की जिंदगी से चली गई. पर क्या दीपक उस के इस धोखे को प्यार में बदल पाया? या क्या रंजना दीप्ति से मिल पाई?अधिक जानने के लि
7 वर्ष पहले की वह रात, जब मैं उस से पहली बार मिली थी, मुझे आज भी याद है. शनिवार का दिन था, रात के 8 बज चुके थे. सोने से पहले मैं कपड़े बदलने जा रही थी, तभी रात के सन्नाटे को चीरती हुई, बाहर की घंटी बजी. पतिदेव बिस्तर में लेट चुके थे. मेरी ओर प्रश्नसूचक दृष्टि से देख कर बोले, ‘‘इस समय कौन हो सकता है?‘‘
‘‘क्या पता,‘‘ कहते हुए मेरे चेहरे पर भी प्रश्नचिन्ह उभर आया.
कुछ दुखी, कुछ अनमने से हो कर, वह बिस्तर से उठ कर अपना गाउन लपेट ही रहे थे कि घंटी दोबारा बज उठी. इस बार तो घंटी 3 बार बजी – डिंगडांग, डिंगडांग, डिंगडांग… आगंतुक कुछ ज्यादा ही जल्दी में लगता था.
‘‘अरे, इस समय कौन आ गया? यह भी भला किसी के घर जाने का समय है?‘‘ बड़बड़ाते हुए पति ने दरवाजे की ओर तेजी से कदम बढ़ाए.
दरवाजा खुलने की आवाज के साथ ही मुझे किसी महिला की आवाज सुनाई पड़ी. वह बहुत जल्दीजल्दी कुछ कह रही थी, और ऐसा लग रहा था कि मेरे पति उस से कदाचित सहमत नहीं हो रहे थे. यह आवाज तो हमारे किसी परिचित की नहीं लगती, सोचते हुए मैं ने कमरे के बाहर झांका.
‘‘हैलो, आप रंजना हैं ना? मैं दीप्ति, दीप्ति जोशी,‘‘ कहते हुए वह मेरी ओर आ गई और अपना दाहिना हाथ मेरी ओर बढ़ा दिया. हाथ पकडे़पकड़े ही वह लगातार बोलती चली गई, ‘‘मैं आप की कालोनी में ही रहती हूं, उधर 251 नंबर में. बहुत दिन से आप लोगों से मिलने की इच्छा थी, मौका ही नहीं मिल रहा था. आज मैं ने सोचा, बस अब और नहीं, आज तो मिलना ही है.‘‘
‘‘आइए ना,‘‘ कुछ बुझे मन से मैं ने बोला. मैं थकी हुई थी और उस समय अतिथि सत्कार के मूड में तो बिलकुल नहीं थी.
‘‘नहींनहीं, यहां नहीं. चलिए, हम लोग कौफी पीने ताज में चल रहे हैं. ‘‘
‘‘ताज में…? इस वक्त…? कल चलें तो…?‘‘
‘‘अरे नहीं, कल किस ने देखा है? हम आज ही चलेंगे. बहुत मजा आएगा. कौफी शौप तो खुली ही होगी.‘‘
इस से पहले कि मैं कुछ और कह पाती, दीप्ति जल्दी से दरवाजे की ओर मुड़ गई और जातेजाते एक सांस में बोल गई, ‘‘जल्दी से आप दोनों बाहर आ जाओ. कपड़े बदलने की जरूरत नहीं है. किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप ने क्या पहना हुआ है. मेरी कार बाहर सड़क के बीचोंबीच खड़ी है. इस से पहले कि लोग हौर्न मारना शुरू कर दें, मैं चली. कार में आप का इंतजार कर रही हूं.‘‘
मैं और मेरे पति एकदूसरे को देखते रह गए और दीप्ति सटाक से घर के बाहर थी. अब हमारे पास और कोई चारा तो था नहीं, हम दोनों ने जल्दी से जींस और शर्ट पहने और दीप्ति की कार में पहुंच गए.
तो यह थी दीप्ति, जीवन से भरपूर, कोई दिखावेबाजी नहीं, जो दिल में वही जबान पर. हालांकि मैं ने उसे कालोनी में आतेजाते कई बार देखा था, परंतु आमनेसामने आज मैं उस से पहली बार मिल रही थी. पर मुझे लग रहा था कि जैसे मैं उसे सदियों से जानती हूं. लंबी कदकाठी, छरहरा बदन, दोनों गालों में डिंपल, जो मुसकराते समय और भी गहरे हो जाते थे. कंधे के नीचे तक झूलते उस के बाल, जो उस के लंबे चेहरे को मानो फ्रेम की भांति सजा देते थे. इन सब के ऊपर उस की बड़ीबड़ी काली आंखें जो बिन बोले ही कितना कुछ बोल जाती थीं. पर आंखों को बोलने का मौका तो तब मिलता, जब दीप्ति कभी बोलना बंद करती. कुलमिला कर कहें तो एक बेहद खुशमिजाज और जिंदादिल लड़की.
मुझे और दीप्ति को दोस्ती करने में बिलकुल समय न लगा. हम दोनों ही देहरादून के रहने वाले थे और दोनों ही पब्लिक सैक्टर की बैंकों में नौकरी करते थे. पहले साधारण कैपुचिनो के बाद आयरिश कौफी और फिर कोल्ड कौफी विद आइसक्रीम, गप्पें मारतेमारते कब रात के 3 बज गए, पता ही नहीं चला. बातों ही बातों में उस ने बताया कि उस का एक बौयफ्रैंड भी है दीपक, जो इस समय एमबीए करने अमेरिका गया हुआ है, एक साल बाद लौटेगा. हालांकि उस के मातापिता इस विवाह के पक्ष में नहीं हैं, क्योंकि दीप्ति का रंग सांवला है, पर दीपक ने अपना मन पक्का कर लिया है कि वह शादी करेगा तो उसी से, नहीं तो किसी से नहीं.
उस रात जो हमारे बीच मित्रता का एक अटूट बंधन बन गया, दिनोंदिन प्रगाढ़ होता चला गया. लगता था, जैसे पिछले जन्म का कोई नाता था. हम रोज शाम को इकट्ठा घूमते, शौपिंग करते और फिल्में देखने भी साथ जाते. कुछ ही महीनों में दीप्ति एक प्रकार से परिवार की तीसरी सदस्य बन गई थी.
दीप्ति के व्यक्तित्व में दिखावेबाजी का नामोनिशान भी न था. दोटूक बातें और कोई लगावछिपाव नहीं. एक रविवार के दिन सुबहसुबह बाहर की घंटी बजी… वही जल्दीबाजी, जो अब तक दीप्ति की पहचान बन चुकी थी. दरवाजा खोला तो निश्चय ही दीप्ति थी. ना हाय, ना हैलो. ना दुआ, ना सलाम. बस सीधे वह मेरे किचन में थी. इस से पहले कि मैं कुछ समझ सकूं, उस ने ड्रौअर खोला और सारे चम्मच और कांटे उठा लिए.
‘‘मेरे घर में कुछ लोग लंच पर आ रहे हैं और मेरे पास चम्मच कम हैं. तुम लोग आज हाथ से खा लेना. चलो, अच्छा 2 चम्मच रख लो. बाकी सब शाम को लौटा दूंगी.‘‘
भागतेभागते उस ने पीछे मुड़ कर देखा, ‘‘अच्छा, फिर शाम को मिलते हैं. मैं बचा हुआ खाना ले आऊंगी, इकट्ठा खाएंगे.‘‘
मैं मुसकरा दी. दीप्ति मुझ से कुछ साल छोटी थी और मुझे उस पर छोटी बहन जैसा ही प्यार आता था.
शाम हुई और फिर रात हो गई, मैं ने डिनर में कुछ नहीं बनाया. दीप्ति का इंतजार कर रही थी. अपने वादे के अनुसार वह मेरे चम्मच और कांटे ले कर वापस आ गई और आते ही बोली, ‘‘कुछ खाना नहीं बचा. मेरे मेहमान सब खा गए. तेरे फ्रिज में कुछ पड़ा है क्या? निकाल ले. मैं तब तक खिचड़ी बनाती हूं.‘‘
ऐसे ही महीने निकल गए. उस की सुहबत में पता नहीं समय कहां उड़ जाता था. फिर एक दिन कुछ ऐसा हुआ, जिस की किसी ने कल्पना भी नहीं की थी. मैं गेट के बाहर खड़ी थी और दीप्ति दफ्तर से वापस आ रही थी. दूर से देखा तो मन में एक खटका सा हुआ. उस की चाल कुछ ठीक नहीं लग रही थी. वह पास आई, तो मैं ने पूछा, ‘‘कैसे चल रही है टेढ़ीमेढ़ी? क्या हुआ? सब ठीक तो है न?‘‘
यह सुन कर वह हंस पड़ी और उस के गालों के डिंपल और गहरे हो गए, ‘‘अरे, कुछ नहीं, कुछ दिनों से मैं सीधे नहीं चल पा रही हूं. मेरा डाक्टर कह रहा था कि कमजोरी होगी, कुछ विटामिन खा लो, पर मुझे लगता है कि कहीं तो कुछ गड़बड़ है. कल किसी स्पैशलिस्ट को दिखाने की सोच रही हूं. अभी तो देर हो रही है, चलती हूं,‘‘ कह कर वह कुछ झूमती हुई, कुछ लड़खड़ाती हुई अपने फ्लैट की ओर चल पड़ी.
3 दिन बाद उस का फोन आया, ‘‘रंजना, अरे यार, मैं अस्पताल में पहुंच गई हूं. सबकुछ इतनी जल्दी में हुआ कि मैं तुझे बता भी नहीं पाई.‘‘
‘‘क्या…? अस्पताल में…? कौन से अस्पताल में? क्या हुआ…?‘‘
‘‘कुछ ज्यादा नहीं. मेरे दिमाग में कोई कीड़ा है, यह तो मुझे हमेशा से ही पता था, पर अब न्यूरोलौजिस्ट को एक ट्यूमर भी मिल गया है. शायद कीड़े का घर होगा,‘‘ कह कर वह जोर से हंस पड़ी.
‘‘साफसाफ बता. पहेलियां मत बुझा,‘‘ मैं ने फटकार लगाई.
“डाक्टर ने कहा है, तुरंत आपरेशन करना चाहिए. मैं ने कहा ठीक है, जैसी आप की मरजी. मम्मी को देहरादून से बुला लिया है. कल आपरेशन है. तू आएगी न मुझे अस्पताल में मिलने?‘‘ मैं सकते में आ गई और कुछ बोल भी न सकी.
इतने बड़े और सीरियस आपरेशन की पूर्व संध्या को कोई इतना चिंतामुक्त कैसे हो सकता है?
मैं उस की मम्मी से मिलने और दीप्ति का हाल जानने रोज अस्पताल जाती रही.
5 दिन बाद उसे आईसीयू से कमरे में लाया गया. उस के सिर के सारे बाल घुटा दिए गए थे और पूरे सिर पर सफेद पट्टी बंधी हुई थी. शक्ल से कुछ कमजोर लग रही थी, पर उस की मुसकराहट ज्यों की त्यों थी. कितनी बहादुर लड़की है, मेरे दिल में उस के लिए इज्जत और बढ़ गई. पर मुझे लगा कि उस का चेहरा कुछ बदलाबदला सा लग रहा है. ऐसा लगा कि कहीं उस के चेहरे पर लकवा तो नहीं मार गया, पर पूछने की हिम्मत नहीं पड़ रही थी.
उस ने मेरा दिमाग तुरंत पढ़ लिया, ‘‘क्या देख रही है? मेरा मुंह टेढ़ा लग रहा है ना? वो बदतमीज ट्यूमर मेरे दिमाग की नर्व के चारों ओर लिपटा हुआ था. बेचारे सर्जन ने बहुत कोशिश की, पर हार कर उसे वह नर्व काटनी ही पड़ गई,‘‘ कह कर वह हंस दी, पर उस हंसी के पीछे छिपी मायूसी साफ दिख रही थी.
‘‘डाक्टर का कहना था, गनीमत समझो कि तुम्हारी जान बच गई. शक्ल का क्या है? जो मुझे जानते हैं, मुझ से प्यार करते हैं, वे सब तो खुश ही होंगे कि मैं जिंदा हूं. जो मुझे जानते नहीं, वह कुछ भी सोचें, मुझे क्या फर्क पड़ता है? क्यों ठीक है ना…?‘‘ फिर वही हजार वाट बल्ब वाली मुसकराहट…
जीवन की इतनी बड़ी मार उस ने कैसे हंसतेहंसते झेल ली, देख कर मुझे बहुत आश्चर्य हुआ.
अस्पताल की घंटी बजने लगी, आगंतुकों के घर जाने का समय हो गया था. मैं भी घर लौट आई, पर रास्ते भर सोचती रही कि बेचारी दीप्ति के साथ ऊपर वाले ने कितना अन्याय किया है.
2 दिन बाद जब मैं अस्पताल पहुंची तो देखा, दीप्ति काला चश्मा लगा कर बिस्तर पर लेटी हुई है.
‘‘अरे वाह, क्या स्टाइल है? अंदर कमरे में भी काला चश्मा…?‘‘ मैं ने बिना सोचेसमझे ही बोल दिया, पर उस का उतरा हुआ चेहरा देख कर तुरंत ही मुझे अपनी गलती का एहसास हो गया. उस ने मुझे गंभीरता से बताया कि लकवे की वजह से उस की पलक झपक नहीं रही है और उस में इनफैक्शन का खतरा है, इसीलिए डाक्टर ने उस की आंख पर टांके लगा दिए हैं. उसी को छिपाने के लिए उसे चश्मा लगाना पड़ रहा है. उस के आपरेशन के बाद उस दिन पहली बार लगा कि वह परेशान है.
मैं ने उसे सांत्वना देने का प्रयास तो किया, ‘‘कोई बात नहीं, कुछ दिन की बात है. जल्दी ही सब ठीक हो जाएगा,‘‘ पर मेरा अपना दिल उस की यह दशा देख कर डूब रहा था.
अस्पताल से डिस्चार्ज होने के उपरांत वह स्वास्थ्य लाभ के लिए अपने मातापिता के साथ देहरादून चली गई. तकरीबन 2 महीने बाद वह वापस दिल्ली अपने घर आ गई. वही पतलीदुबली और लंबी आत्मविश्वासी लड़की. उस के बाल भी कुछ बढ़ गए थे, हालांकि थे छोटे ही. बस अब एक ही फर्क आ गया था. वह हर समय बड़ा सा काला चश्मा लगा कर रखती थी, जिस से उस की बंद बाईं आंख और विकृत चेहरा किसी को पूरी तरह दिखाई न दे.
एक शाम जब हम दोनों कालोनी में टहल रहे थे, उस ने अपने दिल का दर्द मुझे बता ही दिया, ‘‘रंजना, क्या तुम्हें लगता है कि मेरी ऐसी सूरत देख कर भी दीपक मुझ से वैसे ही प्यार करेगा, जैसे वह पहले करता था? क्या तुम्हें लगता है कि वह अभी भी मुझ से शादी करना चाहेगा?‘‘
मुझे समझ नहीं आया कि मुझे क्या कहना चाहिए? मैं तो दीपक से कभी मिली भी नहीं थी, पर हिम्मत कर के मैं ने कहा, ‘‘अगर वह तुम से सच्चा प्यार करता है तो जरूर शादी करेगा,‘‘ मेरा दिल जानता था कि मैं उसे खुश करने के लिए ही ऐसा कह रही थी.
‘‘पता है रंजना, वह मुझे हजारों टैक्स्ट मैसेज भेज चुका है. और पता नहीं सैकड़ों बार उस के फोन आ चुके हैं, पर मैं उस को कोई जवाब नहीं दे रही हूं.‘‘
मैं ने देखा, वह अपना दुपट्टा उंगली में लपेटे जा रही थी. स्पष्ट था कि वह काफी परेशान थी और किसी उलझन में पड़ी हुई थी.
‘‘हैं…? ऐसा क्यों पागल? तू ने उसे अपनी सर्जरी के बारे में बताया नहीं क्या? उस को तेरी कितनी फिक्र हो रही होगी? बेचारा क्या सोचता होगा?‘‘ मैं ने उसे प्यारभरी फटकार लगाई.
‘‘जानती हूं, जानती हूं. सर्जरी के समय उस के सेमेस्टर एग्जाम होने वाले थे, उसे टैंशन हो जाती तो पढ़ता कैसे? बाद में मैं ने सोचा कि क्या बताऊं. जिन आंखों में डूब जाने की बात वह हमेशा करता था, उन में से एक तो हमेशा के लिए बंद हो गई है. मैं नहीं सोचती कि उसे अब मुझ से शादी करनी चाहिए.‘‘
‘‘पर, उस ने तुम से शादी का वादा किया है. तुम्हें उसे बताना तो चाहिए था. उस का इतना हक तो बनता है न?‘‘
‘‘मुझे पता है रंजना, पर मुझे रिजैक्शन से डर लगता है. अगर उस ने मना कर दिया तो…?‘‘
‘‘पर, जानने का अधिकार तो उसे है न?‘‘ मैं ने फिर वही बात दोहराई.
‘‘लेकिन, मैं यह समझती हूं कि वह एक बिना आंख की लड़की से क्यों शादी करेगा? उसे करनी भी नहीं चाहिए. सारी जिंदगी क्यों खराब करेगा बेचारा? मुझे कोई हक नहीं कि मैं उस की जिंदगी खराब करूं. अभी तो हमारी शादी हुई नहीं है. उसे कोई और मिल जाएगी और मैं उस की जिंदगी से कहीं दूर चली जाऊंगी,‘‘ कहते समय उस का गला रुंध गया था और उस का घर भी आ गया था. बिना कुछ बोले वह घर की ओर मुड़ गई. शाम के अंधेरे में भी उस की आंखों से बहते आंसू मुझ से छिप न सके.
अगले 2-3 सप्ताह तक मैं भी काम में कुछ ज्यादा ही मशगूल रही. बैंक में इंस्पैक्शन चल रहा था. फिर एक दिन अचानक वह मुझे दिखी, टैक्सी में कहीं जा रही थी. उस ने टैक्सी रुकवाई और बैठेबैठे ही बोली, ‘‘रंजना, मेरा ट्रांसफर हो गया है. मैं दिल्ली से बाहर जा रही हूं.‘‘
‘‘क्या…? अचानक…? कहां जा रही है?‘‘
‘‘सब बताऊंगी, पर अभी नहीं. फ्लाइट छूट जाएगी. मैं वहां पहुंच कर तुम्हें फोन करती हूं. बाय…,‘‘ कहते हुए उस ने ड्राइवर को चलने का इशारा किया और टैक्सी चल पड़ी.
जिंदगी की राह-भाग 2
दीप्ति द्वारा दिया गया घाव भी अब संभवतः भर चला था, हालांकि कभीकभी अचानक उस की बहुत याद आती. कहां होगी, कैसी होगी? कौन जाने...?
कुछ देर तो मैं वहां जड़वत खड़ी टैक्सी को जाते हुए देखती रही, फिर घर की ओर मुड़ गई. यह कैसा फेयरवेल था? सहेली से बिछुड़ने का दुख भी हुआ और गुस्सा भी बहुत आया. मैं वहां खड़ी न होती, तो वह शायद मुझे बता कर भी न जाती. इसी को दोस्ती कहते हैं क्या?
मैं ने उस के फोन का हफ्तों तक इंतजार किया. न कोई फोन आया और न ही कोई मैसेज. मुझे तो ये भी नहीं पता था कि वह गई किस शहर में है. सेलफोन पर फोन किया, तो एक ही जवाब, ‘‘आप जिस फोन से संपर्क करना चाह रहे हैं, वह या तो स्विच्ड औफ है या कवरेज क्षेत्र से बाहर है.‘‘
और कुछ दिन बाद, ‘‘यह नंबर मौजूद नहीं है.‘‘
उस ने अपना फोन नंबर ही बदल लिया था और मुझे फोन करने की जरूरत भी नहीं समझी थी. सेलफोन तो बदला ही, उस ने अपना फेसबुक अकाउंट भी डीएक्टिवेट कर दिया था. उस को भेजी हुई ईमेल भी वापस आ रही थी. मन उस की परेशानी को ले कर पहले ही उदास था, अब मुझे उस पर गुस्सा भी आ रहा था कि उस ने मेरी दोस्ती का कैसा भद्दा मजाक उड़ाया था.
इस घटना को कई वर्ष बीत गए. जिंदगी अपनी डगर पर चलती गई. नए रिश्ते बनते गए. नौकरी की बढ़ती हुई जिम्मेदारियां और घर पर बढ़ती उम्र के 2 बच्चों की देखरेख, कुछ सोचने के लिए दो क्षण भी नहीं मिलते थे.
दीप्ति द्वारा दिया गया घाव भी अब संभवतः भर चला था, हालांकि कभीकभी अचानक उस की बहुत याद आती. कहां होगी, कैसी होगी? कौन जाने…?
फिर ऐसे ही एक दिन अचानक दफ्तर में निर्देश मिले. मुझे अहमदाबाद के एक प्रतिष्ठित संस्थान में 3 दिन के ट्रेनिंग प्रोग्राम के लिए जाना था. जाने का मन तो नहीं था, पर प्रोग्राम अच्छा था, सो मना नहीं किया और मैं अहमदाबाद पहुंच गई. वहां अलगअलग संस्थानों और बैंकों से अधिकारी आए हुए थे.
पहले दिन ही जब सब प्रशिक्षणार्थी अपनाअपना परिचय दे रहे थे, मैं एक व्यक्ति का परिचय सुन कर सतर्क हो गई. वह उसी बैंक का था, जिस में दीप्ति काम करती थी. मैं ने तभी सोच लिया कि मौका लगते ही उस से दीप्ति के बारे में पूछूंगी. मौका हाथ तो लगा, परंतु आखिरी दिन.
हम लोग लंच के समय एक ही मेज पर थे और मैं पूछे बगैर न रह सकी, ‘‘क्या आप दीप्ति जोशी को जानते हैं? कई वर्ष पूर्व वह दिल्ली हेड औफिस में थी. पता नहीं, अभी कहां है?‘‘
‘‘हां, हां, उसे तो मैं बहुत अच्छी तरह जानता हूं. दीप्ति मेरी बैचमेट ही तो है. आजकल वह मुंबई की मुख्य शाखा में है. क्या आप जानती हैं उसे?‘‘
‘‘जी हां, कुछ वर्ष पहले वह मिली थी. हमारी कालोनी में रहती थी,‘‘ कहते हुए मैं कुछ हिचकिचा गई.
कैसे कहती कि वह तो मेरी इतनी अच्छी दोस्त थी.
‘‘क्या वह अभी तक कुंआरी है या शादी कर ली?‘‘ मैं ने कुछ झिझकते हुए पूछा.
‘‘ हां, हां, उस की शादी तो लगभग 6-7 साल पहले, मुंबई आते ही हो गई थी. उस का पति एक जानामाना फाइनैंशियल ऐनालिस्ट है. क्या बंदा है… बड़ीबड़ी कंपनियां उस को अपने यहां रखने के लिए जाल डालती रहती हैं. सुना है, उस ने अमेरिका से पढ़ाई की है. वहां भी सब उसे रखना चाहते थे, पर वह इंडिया वापस लौट आया.‘‘
‘‘वाह, क्या बात है,‘‘ मैं ने आश्चर्य जताया.
“हां, तो और क्या… अच्छा, आप को शायद पता नहीं होगा. उन की प्रेमकथा तो बहुत मजेदार है. उस बेचारी को ब्रेन ट्यूमर हो गया था और डाक्टरों ने आपरेशन में कुछ तो लापरवाही दिखाई और उस के चेहरे पर लकवा मार गया. उस वक्त दीपक मतलब उस का होने वाला पति अमेरिका गया हुआ था. वह उसे वादा कर के गया था कि लौट कर उस से शादी करेगा, पर दीप्ति को लगा कि वह उस से इस हालत में शादी कदापि नहीं करेगा. उस ने बस अपनी ट्रांसफर मुंबई कराई और चली आई और साथ ही, हम सब से वादा लिया कि अगर वह उसे ढूंढ़ता हुआ औफिस आता है, तो हम उसे कुछ नहीं बताएंगे,‘‘ वह मजे लेले कर बोलता जा रहा था.
‘‘अच्छा… फिर क्या हुआ?‘‘ मैं कैसे बताती कि कहानी के यहां तक का भाग तो मैं भी जानती हूं.
‘‘वही हुआ, जो दीप्ति ने सोचा था. यूएसए से लौट कर दीपक उसे ढूंढ़ता हुआ हमारे औफिस आ पहुंचा, पर हम ने अपने वादे के अनुसार उसे कुछ नहीं बताया. पर इतने बड़े बैंक में, आप ही बताइए, किसी अफसर की पोस्टिंग भला छिप सकती है क्या? वह बैंक के मानव संसाधन विकास विभाग में गया, फिर कार्मिक विभाग में गया और उस ने उस का पता मालूम कर ही लिया.‘‘
वह कहानी सुनाए जा रहा था और मेज पर बैठे सभी लोग बड़े ध्यान से दीप्ति की प्रेमकथा सुन रहे थे.
‘‘फिर क्या हुआ…? दीपक मुंबई गया क्या?‘‘ मैं बेसब्री से कहानी के खत्म होने का इंतजार कर रही थी.
‘‘हां, गया न… उस ने पहली फ्लाइट पकड़ी और मुंबई चल पड़ा,‘‘ कहानी अब क्लाइमैक्स की ओर तेजी से बढ़ रही थी, परंतु उसी समय प्रशिक्षण संस्थान के डायरैक्टर साहब हमारी मेज पर आ गए और सभी लोग उन से बात करने के लिए उठ खड़े हुए. दीप्ति की प्रेमकथा अधूरी ही छूट गई. लंच के बाद मेरा मन क्लास में बिलकुल न लगा. बारबार दीप्ति का हंसतामुसकराता चेहरा सामने आ जाता. उस से मिलने की इच्छा प्रबल हो रही थी. सोचा कि शाम को उस के बैचमेट से उस का सैलफोन नंबर तो ले ही लूंगी, पर क्लास खत्म होने से पहले ही वह निकल गया. शायद उस की फ्लाइट जल्दी जाने वाली थी.
दिल्ली के लिए मेरी फ्लाइट अगले दिन सुबह थी. मैं रातभर दीप्ति के बारे में सोचती रही. क्या हुआ होगा, कैसे हुआ होगा? काश, मैं उस से कभी मिल पाती.
सुबहसुबह एयरपोर्ट जाते हुए भी मुझे बारबार दीप्ति का खयाल सता रहा था, कैसी होगी, पता नहीं. ये टैलीपैथी थी अथवा महज इत्तिफाक, पर दीप्ति को अचानक सिक्योरिटी लौन में देख कर मैं दंग रह गई. वही पतलाछरहरा बदन, वही कंधों तक झूलते सीधे लंबे बाल, वही कैजुअल सी फेडेड जींस और उस का फेवरिट लालकाले चेक की शर्ट, जिस की बांहें उस ने हमेशा की तरह कोहनी तक मोड़ रखी थीं. और तो और पैरों में भी वही कोल्हापुरी चप्पल. कुछ भी तो नहीं बदला था उस में.
दीप्ति एक नटखट बच्चे के पीछे दौड़ रही थी और वह बच्चा मेरी ओर ही आ रहा था. मैं ने आगे बढ़ कर बच्चे को पकड़ लिया, तो दीप्ति ने भी मेरी ओर नजर उठाई. एक हाथ से बच्चे को पकड़, दूसरा हाथ उस ने मेरे गले में डाल दिया, “रंजना, ओ रंजना, कितने साल बाद मिल रहे हैं यार. कहां चली गई थी तू…?”
‘‘मैं चली गई थी या तू कहीं जा के छिप गई थी? कितने साल बीत गए और तेरा कुछ अतापता ही नहीं है. कहां गायब हो गई थी तू? कैसी है?‘‘
जिंदगी की राह-भाग 3 in hin
दरवाजा खोलने के अलावा मेरे पास कोई और चारा नहीं था. पहले तो उस ने इतना गुस्सा किया कि मैं उस से क्यों भाग रही थी? फिर मेरे आपरेशन के बारे में सारी बातें पूछीं?
सवालों की बौछार तले से निकलना उसे खूब आता था. तुरंत अपनी गलती मान ली, ‘‘सौरी, सौरी, माई डियर फ्रैंड, मैं ने तुझे जानबूझ कर नहीं बताया था. मुझे लगा कि वह मुझे ढूंढ़ता हुआ अगर कालोनी में आ गया, तो तू कहीं उसे मेरा पता न बता दे.
‘‘मुझे पता है, तू नहीं चाहती थी कि मैं उस से दूर भाग जाऊं.‘‘
“फिर दीपक ने तुझे कैसे खोज लिया? और दीपक को ले कर तेरे सारे डर…? उन का क्या हुआ?‘‘ आधी कहानी तो मुझे पहले ही पता लग चुकी थी.
“अब मैं तुझे कैसे बताऊं कि वह कितना गुस्सा हुआ था कि मैं ने उसे अपने आपरेशन और बाद में लकवे के बारे में कुछ नहीं बताया था. 3-4 महीने से कोई बात नहीं होने से वह बहुत परेशान हो गया था. इंडिया लौट कर उस ने पहला काम किया कि मेरे पुराने घर गया. वहां मेरे बारे में कोई उसे कुछ नहीं बता पाया. अगले दिन वह मेरे दफ्तर गया और वहां से मेरी नई पोस्टिंग मालूम कर के सीधा मुंबई मेरे घर पहुंच गया. रात के साढ़े 12 बजे, घंटी की आवाज सुन कर पहले तो मैं डर गई. झांक कर देखा तो दीपक खड़ा था.
”दरवाजा खोलने के अलावा मेरे पास कोई और चारा नहीं था. पहले तो उस ने इतना गुस्सा किया कि मैं उस से क्यों भाग रही थी? फिर मेरे आपरेशन के बारे में सारी बातें पूछीं? और जब मैं ने उस से कहा कि उसे किसी और से शादी कर लेनी चाहिए, तो वह गुस्से से आगबबूला हो गया.‘‘
“अच्छा… क्या बोला?” मैं विस्मयपूर्वक उसे देख रही थी.
“वह कहने लगा, अच्छा अगर मुझे कुछ ऐसा हो जाता तो तुम मुझे छोड़ जातीं? और अगर शादी के बाद ऐसा कुछ हो जाता तो क्या तुम मुझे तलाक दे देतीं? पागल लड़की, तुम ऐसा सोच भी कैसे सकती हो कि मैं तुम से शादी नहीं करूंगा?”
‘‘हम सारी रात बहस करते रहे और सुबह उस ने कहा, ‘मैं नाश्ता बनाता हूं, तुम नहाधो कर तैयार हो जाओ. हम आज ही कोर्ट में शादी करने जा रहे हैं. और ऐसे हमारी शादी हो गई’.‘‘
दीप्ति के चेहरे पर वही हजार वाट बल्ब वाली मुसकराहट वापस आ गई थी. मैं ने अचानक नोटिस किया कि उस के चेहरे पर लकवे का तो नामोनिशां भी नहीं था, ना आंख सिली हुई थी और न ही वह सब छिपाने वाला बड़ा सा काला चश्मा था.
“और वो लकवा…? आंख? काला चश्मा?‘‘ मुझे समझ नहीं आया कैसे और क्या पूछूं.
“अरे, दुनिया में बड़े अजूबे होते हैं. ऐसा ही मेरे साथ हुआ. एक वर्ष बाद मेरे चेहरे का लकवा अपनेआप ठीक हो गया. दीपक कहता है उस ने मुझे हंसाहंसा कर कटी हुई नर्व को फिर से जोड़ दिया और डाक्टर कहता है, कभीकभी ऐसा हो जाता है. कहते हैं ना कि सारी बीमारियों का इलाज बस प्यार ही तो है,‘‘ कह कर दीप्ति बहुत जोर से हंस पड़ी, वही पुरानी संक्रामक हंसी. उस के डिंपल फिर वैसे ही गहरा गए.
अचानक पब्लिक एड्रैस सिस्टम पर उस का नाम पुकारा जाने लगा, ‘‘अंतिम काल. श्रीमती दीप्ति जोशी, जो अहमदाबाद से मुंबई जा रही हैं, कृपया विमान की ओर तुरंत प्रस्थान करें.‘‘
आवाज सुन कर दीप्ति ने अपने बेटे का हाथ पकड़ा और तेजी से प्रस्थान की ओर भागने लगी.
कुछ कदम जा कर उस ने मुड़ कर देखा, हाथ हिलाया और वहीं से चिल्लाई, ‘‘मैं मुंबई जा कर तुझे मैसेज करूंगी. हम फिर मिलेंगे. तेरा फोन नंबर बदला तो नहीं है ना?‘‘
और एक बार फिर दीप्ति भीड़ में गायब हो गई. मुझे खुशी थी कि उस की जिंदगी का वह दुखद अध्याय समाप्त हुआ और उस की जिंदगी में एक बार फिर खुशी की लहर आ गई थी.
वह सामने हवाईजहाज की सीढ़ियां चढ़ रही थी और मेरी आंखें खुशी से नम हो रही थीं. जिंदगी की राह भी कितनी अजीब होती है? हम उसे अपने हिसाब से कितना भी मोड़ने की कोशिश करें, वह हमें अपने अनुसार ही चलाती है. नियति मनुष्य के वश में है या मनुष्य नियति के? पर मैं तो बस यही सोच रही हूं कि क्या इस बार उस का फोन आएगा?